________________
१८ वर्ष ३१, कि० ३-४
वाराणसी, प्राकृत तथा अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली, पसन है । साहू जी ने समाज में मुक्तहस्त से दान दिया। साह जैन कालेज, नजीब बाद, मूर्ति देवी कन्या इण्टर उनकी उदारता का लाभ उठाकर लोगो ने कुछ ऐसे कालज, नजीबाबाद, मूर्तिदेवी सरस्वती इटर कालेज, स्थानो के लिए भी उनस धन प्राप्त कर लिया जहा धन नजीबाबाद, भारतवर्षीय दि. जैन परिषद्, दिगम्बर जैन की आवश्यकता नहीं थी। एक बार परम पूज्य १०५ महासमिति, सराकोद्धार समिति, दि जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, क्षुल्लक गणेश प्रसाद जी वर्णी ने साहू साहब को एक वीर संवा भांदर, देहली, जैन विद्या तथा प्राकृत विभाग, इलोक लिखकर दिया था, जिसका भाव यह थामसूर विश्वविद्यालय, मंसूर, दि. जैन प्रनाथ रक्षक सोसा- "हे वारिद ! तुम स्थल में भी बरसते हो, जल मे यटी दिल्ली, भा. दि. जैन विद्वत् परिषद्, समाज के भी बरसते हो, पहाड़ो पर भी बरसते हो, हिमशिलामो प्रमुख तीर्थक्षेत्र तथा अन्याय सैकड़ों सामाजिक धार्मिक पर भी बरसते हो। तुम्हें कहां बरसना चाहिए, इसका संस्थायें उनका वरद हस्त पाकर फली फली और उनमे बोध नहीं।"
पूज्य वर्णी जी से प्रेरणा पाकर वे योग्य स्थान पर अपूर्व उत्माह का सचार हुमा। प्रायः धनी व्यक्तियो के विषय में कहा जाता है कि
घन का सदुपयोग करने में सचेष्ट रहे। जीवन की सध्या
में धन और भोग के प्रति उनके मन में निरासक्ति की धन की वृद्धि के साथ-साथ उनकी लोभवृत्ति भी बढ़ती जाती है। माननीय साहू शान्ति प्रसाद जी इसके अपवाद
भावना उत्पन्न हो गई थी और उन्होने हस्तिनापुर में रह
कर मं साधन करने की अपनी हादिक अभिलाषा व्यक्त थे। धन के साथ-साथ उनकी उदारता भी वृद्धिंगत होती
की थी। काल दुरति क्रम है, साहू जी की उक्त भावना गयी। धन वत्ता और उदारता का मणि काञ्चन सयोग
उनके मन में ही रह गई और प्रसमय में उन्होन अपना उनके जीवन मे था। एक बार पूज्य पं. कैलाशचन्द्र जी
देहत्याग कर दिया। यद्यपि वे स्वर्गस्थ हो गए, किन्तु से चर्चा करते समय उन्होंने कहा था कि अधिकाधिक
उनका यशस्वी जीवन युगों-युगो तके समाज को प्रेरणादायी धन कमाने और उस पच्छे कामो में व्यय करने का उन्हें रहेगा। जैन मन्निर के पास, बिजनौर (उत्तर प्रदेश)
400
(पृष्ठ १३ का शेषांश) उनकी सरलता से अभिभूत हुए बिना नही रहा है। दान देने लिए उत्सुक बने रहे। उन जैमी ज्ञान के प्रति ललक वालो और धन खर्च करने वालों की समाज व देश में कभी वास्तव में अंष्ठिजनों में लक्षित नहीं होती। लगता है कि नहीं है, किन्तु सरस्वती व सरस्वती के वरद पुत्रो के पाद- जीवन का सार वे पहचान गए थे, वर्तमान परिस्थिति में पदमों में कमलाकर लक्ष्मी को न्योछावर कर अपनी तथा सघर्ष की भूमिकानों को मार चुके थे, केवल शुद्ध श्री शोभा को सार्थक बनाने का गुण वास्तव में स्व. ज्ञानामत का पान करना ही अशिष्ट रहा था, जिसे शान्तिप्रसार जी मे ही था।
पान करने के लिए उनका उद्यम जागृत हो गया था। उनमे एक गुण पौर था। वे सुनते सब की थे पर काश ! वे प्राज की परिस्थितियों में होते । इस अध्यात्म निर्णय उनका अपना होता था। सभी सन्त महात्माप्रो के युग की सरस धारा से उनका अनन्य सम्बन्ध प्रगाढ़ता पाम वे बिना किमी हिचक के पहुंच जान थे। पूज्य वर्णी को प्राप्त होना तो वह उनके लिए भी और हमारे लिए जी के अनन्य संस्कारों से प्रभावित होकर ही वे किसी भी श्रेयस्कर होता। परन्तु काल पर किसी का वश नही। भी प्रभाव का अपनो सुमति-निष्कर्ष पर क से बिना ग्रहण हम केवल भावना ही भा सकते है। और इसालए यह करने के लिए तैयार नही होते थे। केवल सत्साहित्य से भी कह सकते है कि भले ही प्राज हमारे बीच साह
नहीं, विद्वज्जनो के प्रति उनके मन में प्रगाध अनुराग शान्ति प्रसाद जी सदेह रूप से न हो, पर उनके अनगिनत व श्रद्धा का भाव था। वीतराग विज्ञान वाणी से ही लौकिक कार्य भली भाति पुकारु कर यह कह रहे है कि वे उसे शान्ति का गनुभव होता था। अप। अन्तिम समय मजर है, अमर हैं 1000 २४३, शिक्षक कालोनी, तक वे उसे एक सच्चे श्रोता की भोति श्रवण करने के
नीमच (मध्यप्रदेश)