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________________ प्रमाणप्रमेयानुप्रवेश : एक महत्वपूर्ण कृति श्री शीतलचन्द्र जैन, वाराणसी जैन सिद्धान्त भवन, पारा की 'प्रमाणप्रमेयानुप्रवेश' को केशव नामक ब्राह्मण विद्वान् ने लिखा है। पुष्पिका शोषक पाण्डुलिपि को श्रद्धेय डा० दरबारीलाल जी कोठिया वाक्य के पूर्व षड्दर्शन समुच्चय की 60 कारिकायें भी के यहाँ देखने का सौभाग्य प्राप्त हमा। डा० कोठिया जी उल्लिखित हैं। प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार को इस ग्रन्थ ने वह पाण्डलिपि मुझे दे दी और कहा कि इसका सम्पादन के लिखने की प्रेरणा षड्दर्शन समुच्चय से प्राप्त हुई है पाप करें। इसके लिये वे मुझे निरन्तर प्रेरणा भी करते क्योंकि शैली भी उसी प्रकार की अपनाई गई है। रहे। पर समय न मिलने से मैं उसकी ओर पूरा ध्यान न प्रतिपरिचय दे सका। इधर गत अगस्त माह के अन्तिम सप्ताह में ग्रन्थ की इस प्रति में 1346 इंच माइज के कुल 20 प० भा० दि० जैन विद्वतपरिषद् के तत्वावधान में पत्र है । एक पत्र में एक प्रोर 10 पंक्तियाँ तथा एक पंक्ति गोकूलचन्द्र जी द्वारा 'अनुसंधान एवं सम्पादन प्रशिक्षण में 32 अक्षर है। लिखावट शुद्ध है। शिविर' का प्रायोजन किया गया। उससे मुझे उसके विषय परिचय सम्पादन के लिये और अधिक उत्साह मिला । फलस्वरूप ग्रन्थ में जैन, बौद्ध, चार्वाक, नैयायिक-वैशेषिक, सांख्य इस ग्रन्थ का सम्पादन की दृष्टि से अध्ययन करने का और मीमासक इन छह दर्शनों के प्रमाण-प्रमेयों का परिचय मुझे सुअवसर प्राप्त हुआ। कराया गया है। ग्रन्थकार ने 'इति षड्दर्शनप्रमाणप्रमेय प्रन्थ का अन्तः परिचय संग्रहः' इस प्रकार उल्लेख कर स्पष्ट भी कर दिया। यह लघुकाय ग्रन्थ न्याय विषय का है। इगमे पडदर्शनों जैनदर्शन के प्रमाण और प्रमेयों का सुन्दर और सरल सस्कृत भाषा में सर्वप्रथम ग्राहंतमत का प्रतिपादन करते हुये स्वामी परिचय कराया गया है। ग्रन्थ का प्रारम्भ एक मंगल श्लोक पागल लोक समन्तभद्राचार्य के प्रमाण के लक्षण का अनुसरण किया मेहमा है, जिसमे अनन्तचतुष्टय मे युक्त तीर्थकर को गया है । लिखा है कि --'तावदर्हतोप्रतिहतशासनस्य नमस्कार किया गया । वह मगल श्लोक इस प्रकार है तत्वज्ञान प्रमाणम् । तद् द्विविध प्रत्यक्षं परोक्षछ च । सादनन्त समाख्यात व्यक्तानन्तचतुष्टयम् । स्पष्टमाद्य मस्पष्टमन्यत् । त्रिधा च गकलोतर-प्रत्यक्ष परोक्षत्रैलोक्ये यस्य साम्राज्यं तस्मै तीर्थकृते नमः ।। भेदात् । करण कमव्यवधानापोट मकलप्रत्यक्षम् । क्रमन्वित मध्य मंगल करण क्रमव्यवधानढं विकलप्रत्यक्षम् । इन्द्रियमनोग्रन्थ के मध्य मे भी शुभचन्द्रदेव और माणिक्यनन्दि । व्यापाराभिगखेतरार्थापेक्ष परोक्षम् ।' प्राचार्य को नमस्कार किया गया है। मध्य मंगल श्लोक आगे नय का स्वरूप एवं उमके भेदो और सप्तभंगी इस प्रकार है - का विवेचन किया गया है। अन्त में द्रव्य, अस्तिकाय पौर जयतिशुभचन्द्रदेवः कंडुर्गणपुण्डरीकवनमार्तण्डः ।। पदार्थ को प्रमेय कहा है। लेखक ने इसमे एक जगह जैन. चंद्रविडंडरो राद्धान्त पयोधिपारगोबुधविनुतः ॥ दर्शन के प्रति कितनी महत्वपूर्ण बात कही है कि "अस्मानमो माणिक्यनाथाय नाकनाथाचिताघ्रिये (दिवः)। भिवर्नत्सविवेकमहापर्वतार प्रमतत्वशिखरजिनपुरनिवा ग्रन्थ के अन्त में एक पुष्पिका वाक्य है जिसमे लिखा भिर्जेनलौकरयं इष्टनिवृत्तिनगरीगगनमार्ग:।" है कि 'इदं पुस्तक परिधाविनामसम्वित्सरे दक्षिणायणे वैशेषिक दर्शन ग्रीष्मनां निज भाषाढमासे कृष्णपक्षे दशम्याम् गुरुवारे इस दर्शन में मान्य प्रमाण के दो भेदों का उल्लेख दिवाद्यशटिकाया वेणुपुरस्थितपन्नेचारी मठस्य श्री पत्यर्चक करते हुये लिखा है कि "प्रत्यक्षलेगिके प्रमाने । तत्रेन्द्रिय गौड सारस्वत ब्राह्मण विद्वदकर्मी वेदमूर्ति वामननामशर्मण मनोर्थसन्निकर्षादुत्पन्ना वृद्धिः प्रत्यक्षम ।"प्रात्मेन्द्रियेपंचमात्मजः केशवनामशर्मणा लिखितमितिसमाप्तमित्यर्थः, पेन्द्रियं मनसा मनोर्थेन यदा प्रसज्यते तदोत्पन्ना स्पष्ट. श्रारस्तु'। प्रतिभास रया बुद्धिरेव प्रमाणम्।" द्रव्य, गुण, कर्मावि उक्त पुष्पिका वाक्य से प्रतीत होता है कि इस अन्य प्रमेयो का भी परिचय क्रमशः कराया गया है।
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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