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________________ १३४, वर्ष ३१, किरण ३-४ अनेकांत भाद्रा में मुनि चम्पालालजी को विशाल-कीतिगणिकृत मिलान करके देखा तो दोनों रचनाएं एक ही सिद्ध हुई। शब्दानुशासन-अष्टाध्यायी की एक प्रति मिली, वे उसे इस महत्वपूर्ण जैन व्याकरण ग्रंथ की हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उस अन्य को प्राचार्य बहुत ही कम प्राप्त हैं। हमारे संग्रह की प्रतियां १८वीं वर को भेंट किया। प्राचार्यवर ने उसे देव पाश्चर्य शती के पूर्वार्द्ध की लिखी हुई हैं । अंतिम तीसरी प्रति के मिश्रित हर्ष प्रकट किया और उस उपलब्धि के लिए उन्हें अंत में लिखा है-"वा० हेमहर्षगणिभिः । वा० यशोलाभ साधुवाद दिया। गणिभ्यप्रदत्तनया ॥३॥" इस ग्रन्थ के पृष्ठ ४६ मे तुलसीगणि ने लिखा है कि प्रथम प्रति समास प्रक्रिया के अंत में लिखा है इत्याचार्य श्री सागरचंद्र सूरि संतानीय वाचनाचार्य श्री विशाल-शब्दानुशासन के परिभाषासूत्र सरल थे, हेमशब्दा विशालकीतिगणि विरचितायां प्रक्रियासार कौमुद्या नुशासन से कठिन । प० रघुनन्दन जी दोनों को पढ़ाते थे। समास प्रक्रिया। प्राचार्यवर भी दोनो को देखते रहने थे। उनकी यह धारणा वाचनाचार्य श्री यशोलाभ गणीनामंतेवासी पं० युक्तिबन गई कि हेमशब्दानुशासन के सूत्र कठिन है, उसका सुदर मुनि वाचनार्थ ।। स्यादि प्रकिया समाप्ता सार प्रक्रिया ग्रन्थ भी प्राप्त नहीं है इसलिए विशाल-शब्दानु- कौमुद्यामिति ।।१ वलि. शासन मे ही प्रावश्यक सशोधन कर उसे प्रध्यान गे प्रयुक्त बीव को न० २ प्रति द्विरुक्त प्रक्रिया की है। सभी करना चाहिए। प्रतियो में इस रचना का नाम "प्रक्रियासारकौमुदी' लिखा मुनि चौथमल जी प्राचार्यवर की इस इच्छा की समूर्ति हुआ मिलता है एवं प्रारम्भिक मंगलाचरण श्लोक में भी में लग गए। वे विशाल-शब्दानुशासन के अध्येता थे। पं० यही नाम है, प्रत. सार कौमुदी यह नाम पूरा नहीं है । इसी रघुनन्दन जी का उन्ह सहभाग मिला। विशाय शब्दानुशासन __ कारण जब मुझसे सारकौमुदी के विषय मे पूछा गया तो के परिष्कार का कार्य प्रारम्भ हो गया। मैंने लिखा कि इस नाम का तो कोई ग्रंय नही, पर प्रक्रियाविशाल शब्दानुशासन को परिष्कृत करने का उपक्रम , ___ सारकौमुदी की प्रति तो हमारे यहाँ है । हमारे संग्रह की चला था, पर उसमे इतना परिवर्तन हो गया कि एक नया तीनो प्रतियॉ उदहीभक्षित है और प्रथम प्रति मे तो प्रारही व्याकरण ग्रय बन गया। उसका नाम भिक्षुशब्दानुशासन भिक पत्रो का काफी प्रश खडित है। इस रचना का प्रादि रखा गया । मुनि चौथमल जी ने भिक्षुशब्दानुशासन के और अंत इस प्रकार हैप्रक्रिया पथ के रूप में कालको मुदी की रचना की। प्रादि-श्री सर्वज्ञ समानभ्य, गौतमाहि मुनीन् गुरून् । पडित जी ने भिक्षुशब्दानुशासन का पद्यबद्ध लिगानुशासन मारस्वतानुगां कुर्मः प्रक्रियासारकौमुदीम् ।।१।। तयार किया। न्यायदर्पण, उणादिपाठ, धातुपाठ और अ र अंत्य प्रशस्ति-अनंतत्वन्न शक्यन्ते, शब्दा सर्वेऽनुशासितुम् । अस्माभिरुक्ता: संक्षिप्य, बालव्युत्पतिसिद्धये ॥१॥ गणपाठ भी तैयार हो गया। इस प्रकार देखते-देखते महाकाव्यकरण सर्वाग परिपूर्ण हो गया। अव्याकृतानि सूत्राणि ग्रंथ बाहुल्य भीतितः। सूत्रानुक्रम वृत्तौ तु व्याकरिष्यामि तान्यऽहम् ॥२॥ यहाँ इतना लबा उद्धरण देने का प्राशय यह है कि प्रसद् वचस्तम्तोहन्त्री, सच्चकोर प्रमोददा। जैन संप्रदाय का व्याकरण संबन्धी कार्य सारकोमुदी और विशालकीतिगणिभिः प्रक्रियेमं प्रकाशिता ॥३॥ विशाल-शब्दानुशासन पर प्राधारित है। इनमे से विशाल ज्ञानप्रमोदमाक् सस्याप्राप्त श्री शारदावरः। शब्दानुशामन की प्रति के विषय में मैने मुनि नथमल विशालकी ति योऽधीते प्रक्रियासारकौमुदीम् ॥४॥ जी से पूछताछ की, पर उसकी प्रति का पता नही चला। जयति सकलभूतिविश्वविख्यात कीत्तिः, नाम को देखते हुए वह विशालकीति की ही विशाल रचना सुरगिरी समधीर स्तजितानङ्ग वीरः । है। विशाल-कीति की सारकोमूदी की प्रति का विवरण विदित निखिल भावः श्री महावीर देवः, डा० नथमलजी टाटिया द्वारा प्राप्त किया। हमारे संग्रह सुदलित दुरितौद्यः प्रीणितःप्राणि सधः ।।५।। की प्रक्रियासारकौमुदी की तीन हस्तलिखित प्रतियों से (शेष पृष्ठ १३६ पर)
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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