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________________ १८, बर्ष ३१, कि.१ भनेकान्त सिद्धान्त का पनुकरण किया है। किन्तु वे इम जगत को किया है, किन्तु अभी तक वह अन्यान्य कारणों से प्रकाश मिथ्या, कलेशयुक्त मादि नही मानते। उन्हें समस्त जगत मे नही पा पाया।' ही परमात्मामय दिखाई पडता है। इसलिए रामभक्ति को महाकवि तुलसीदाम के योगदान को परिधि में उन्होने सर्वोपरि मानने का प्राग्रह किया है। किन्तु इस बाधना उसकी विशालता को कम करना है । वे भारत के सबके बावजूद भी वे वर व मंकीणं मम्प्रदायवादी नहीं उन प्रमख रत्नों मे है जिन्होंने भारत की संस्कृति पर कहे जा सकते क्योकि वे मूलतः उदार चिन्तक थे । उनका प्रभाव डालकर हमारी मानसिक, व्यावहारिक और सामाकहना है - जिक भावना के स्वरूप को बहुत कुछ बदल दिया है। कोउ कह सत्य झूट कह कोऊ जुगल प्रबलकर मान । भाषा और माहित्य के माध्यम से उन्होंने विश्व साहित्य में भी प्रतिष्ठापूर्ण स्थान बना लिया है। भाज गोस्वामी तुलसीदास जो त तीनि भ्रम सो प्रापून पहिचान ।। जी के रामचरितमानस का घर घर, गांव-गांव पौर योगदान झोंपड़ी-झोपड़ी में जो प्रचार और प्रसार हमें दिखाई इसमें कोई शक नहीं कि स्वयम्भू और तुलसीदास दोनों देता है उसका कारण ग्रन्थ द्वारा सदाचार की प्रवृत्तियो ने ही अपने-अपने यूग का प्रतिनिधित्व किया है। भारतीय का विकास, राम एवं सीता की प्राध्यात्मिक भावना पोर सस्कृति और प्राज के मम-सामयिक परिवेश में उनका सासारिक जीवन के पारिवारिक व व्यक्तिगत उत्थान को कितना योगदान है, इसका मूल्याकन करना महज नही है। ही मानना चाहिए। प्राज भी ये भावनाएँ हमारे लिए स्वयम्भ के पउमचरिउ ने पूर्व प्रसिद्ध रामकथा को वैसी ही उपयोगी है जैसी गोस्वामी जी के समय में थी। एक नयी भाषा में जीवित रखा है और उसे नये परिवेश किन्तु ममाज के बदलते परिवेश और वातावरण के अनुमे देखने की कोशिश की। रामकथा और अपभ्रश भाषा कूल हमे काफी सजग होकर उसमे प्रवृत्त होना चाहिए। दोनो एक दूसरे से परस्पर उपकृत है। रामकथा को तुलमीदाम की इस अपूर्व देन के बावजूद भी राम कर जैनघम के सिद्धान्तों का प्रचार प्रसार चरितमानस, यद्यपि जन-साधारण में प्रसिद्ध एवं समादरसर्वसामान्य में करने के लिए स्वयम्भु ने प्रयत्न किपा पोर णीय है, किन्तु व्यावहारिक रूप में उसके प्रादों का जनभाषा का प्राधार होने के कारण उस समय उसे कितना उपयोग हमा है या हो रहा है, सोचने का विषय प्रसिद्धि भी मिली, यह प्रसदिग्ध है। किन्नु पउमचरिउ के है ? तुलसीदास ने परम्परा, अपने व्यक्तित्व एवं समय से है? कथानक को समुचित पादर नही मिला, फिर भी कवि ने प्रभावित होकर - अपनी प्रमाघारण काव्य-प्रतिभा, सरसता और अनुभव नही शूद्र गुनगान प्रवीना । पूजिय विप्र शील गुन होना ।। गम्भीरता के कारण अपने जीवनकाल मे पर्याप्त सम्मान सकल कपट प्रघ अवगुन खानी। एवं यश विद्वस्स माज मे अजित कर लिया था, जो विधिहुं न नारि हृदयगति जानी । कवि का प्रतिपाद्य भी था। प्रधम तें अधम अधम अति नारी । उमचरिउ वर्तमान मे पठन-पाठन एव मनन-चिन्तन इत्यादि जो बातें कही है इनसे कवि के व्यक्तित्व पर मेमो उपेक्षित ही हो, किन्तु हिन्दी साहित्य के विकास में कोई अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा है, भले ही उनके साथ भाषा-विज्ञान एवं काव्यात्मक दृष्टि से उसकी उपयोगिता मजबरी रही हो। कम नही है। वह तत्कालीन सामाजिक एव धार्मिक जीवन द्वैतवाद का खण्डन नुलसीदास को अवतारवाद की का चित्र उपस्थित करने मे भो समर्थ है। इस दृष्टि से स्थापना के लिए करना पड़ा। किन्तु वही अवतारवाद शोध के क्षेत्र मे कई विद्वानों ने उसका अध्ययन प्रस्तुत [शेष पृष्ठ २१ पर] १. द्रष्टव्य, जैनोलाजिकल रिसर्च सोसायटी के दिल्ली सेमिनार ७३ को स्मारिका एवं ज्ञानपीठ-पत्रिका, ६६ । २. तुलसीदास और उनके ग्रन्थ, पृ०२।
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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