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________________ मोम् महम् परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्षरविधानम् । सकलनयविलसिताना विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण संवत् २५०४, वि० सं० २०३४ वर्ष ३१ किरण १ जनवरी-मार्च १९७८ । श्री महावीर-स्तवन प्रशान्तं दर्शनं यस्य सर्वभूताऽभयप्रदम् । मांगल्यं च प्रशस्तं च शिवस्तेन विभाव्यते ॥ जगन्नकावस्थं युगपदखिलाऽनन्नविषयं, यवे तत्प्रत्यक्ष तव न च भवान् कस्यचिदपि । अनेनवाऽचिन्त्य-प्रकृति-रस-सिद्धेस्तु विदुषां, समीक्ष्यंतद्वारं तवगुण कथोरकावयमपि ॥ नाऽर्थान् विवित्ससि न वेत्स्यसि ना, ऽप्यवेत्सोनं ज्ञातवानसि न तेऽच्युत ! वेद्यमस्ति । त्रैकाल्य-नित्य-विषम युगपच्च विश्वं, पश्यस्यचिन्त्य-चरिताय नमोऽस्तु तुभ्यम् ॥ दूरामाप्तं यदचिन्त्य-मृतिज्ञानंत्वया जम्मजराऽन्तकत तेनाऽसि लोकान भिमूय सर्वान्सर्वज्ञ ! लोकोत्तमतामुपेतः ।। क्रियां च संज्ञान-वियोग-निष्फला क्रियाविहीनं च विबोधसंपदम् । निरस्यता क्लेशसमूह-शान्तये त्वया शिवाया लिखितेत पद्धतिः ।। य एव षडजीव-निकाय-विस्तरः पररनालीढ पथस्त्वयोदितः । अनेक सर्वज्ञ-परीक्षण-क्षमास्त्वयि प्रसादोदय सोत्सवाः स्थिता ॥ -सिद्धसेनाचार्यः अर्थ-जिनकी प्रशान्त मूर्ति के दर्शन मात्र से समस्त प्राणी प्रभय प्राप्त करते हैं, वह भगवान् प्रशस्त मंगलरूप एवं कल्याणमयी शोभायमान हैं। अखिल विश्व के अनन्त विषय और उनकी समस्त पर्यायें जिसके प्रत्यक्ष हैं, अन्य किसी को नहीं, पौर प्रकृति-रस-सिद्धविद्वानों के लिए भी जो प्रचिन्त्य है, ऐसे उक्त सर्वज्ञद्वार की समीक्षा करके मैं प्रापका गुणगान करने को उत्सुक हुमा हूँ। विश्व के त्रिकालवर्ती समस्त साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्त, सूक्ष्म-स्थूल, दृष्ट-प्रदृष्ट, ज्ञातपज्ञात, व्यवहित-अव्यवहित प्रादि पदार्थ प्रपनी अनेक अनन्त पर्यायों सहित पाप को युगपत् प्रत्यक्ष हैं, हे भगवान प्रच्युत! पापको नमस्कार हो! हे सर्वान्सर्वज्ञ ! कठिनाई से प्राप्त होने वाले अचिन्त्य तत्त्वज्ञान द्वारा प्रापने जन्म-जरा मत्यु को जीत कर लोक को अभिभूत किया और लोकोत्तमता प्राप्त की। हे प्रभु ! प्रापके सन्मार्ग में सम्यग्ज्ञानरहित क्रिया को तथा क्रियाविहीन ज्ञान को क्लेश समूह को शान्ति और शिवप्राप्ति के अर्थ निष्फल बताया है। हे वीर जिन ! छ: काय के जीवों का जो विस्तार मापने प्रतिपादित किया है, वसा कोई अन्य नहीं कर सका। प्रतएव जो लोग सर्वज्ञत्व की परीक्षा करने में समर्थ हैं, वे बड़े प्रसन्न चित्त से प्रापके भक्त बने हैं। DDD)
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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