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________________ साहू शान्तिप्रसाद : सेठ और साधु 0 डा. प्रेमसागर जैन, एम. ए., पी-एच. डी, बड़ौत साह शान्तिप्रसाद जैन सेठ थे तो साधु भी थे, ऐसा मैं अथवा समारोह वाले दिन प्रात:काल । मझे समीप से जाना अनेक वर्षों के सम्पर्क से जान सका हं। जब शान्तिप्रसाद जैन होता था, प्रत. निश्चिन्त रहता था और किसी-किसी वर्ष अ नोखलन रहते थे। शाम के चार बजे तक पहुच पाता था। इस बीच साह शान्तिप्रमाद कम-से-कम पाच बार टेलीफोन कर मालम छत्ता लगा हुआ था। कुछ छात्र उसे तोड़ने का प्रयत्न करते थे कि प्रेमसागर अभी तक प्राये या नही। भाजी करते थे, तो शान्ति जी नाना उपायो से उन्हे रोके रहते के समय वे सदैव मुझे अपने पास बटाल कर खिलाते थे। थे। एक दिन वे शहर गये हुए थे कि कुछ छात्रो ने उस बडे-बडे लोगो से मेरा परिचय बहुत अच्छे शब्दो में कर. छत्ते को तोड डाला। मक्खियो को मार दिया । जव वाते थे और मैं सकुचित होकर रह जाता था। मेरे पास शान्ति भाई लौट कर पाये और उन्होने ऐसा देपा तो जो इन्फीरियर्टी है वह दिल्ली के उस उच्च वर्ग में रोने लगे ! उस समय उनका रो पड़ना छागे के मध्य । स्पष्ट हो उठती थी। शायद वह यह सब कुछ समझते बडी चर्चा का विषय रहा। इससे उनके मावा दिल भीर थे, इसीलिए मुझे अधिकाधिक प्रोत्साहन भोर प्रेरणा देत अहिंसक भाव का परिचय मिलता है। वे एक पुराने जैन थे प्रोर मेरा ऐसा चित्र खीचत थे, जैसा कि मैं नही। उनकी इस सदाशयता का मै सदैव ऋणी रहगा। सरकारो से युक्त खानदान में जन्मे थे। साह जी की सहृदयता जन्म-जात थी। उनका स्व___मैंने ऐसा अनेक अवसरो पर देखा कि दीन-दुखी को । भाव ही ऐसा था। जो कुछ उठता, भीतर से । दिखावे देख कर उनका दिल दया-द्रवित हो उठना था। उन्होंने । वाली बात ही नहीं थी। भाज की उदारता के पीछे प्रागे चलकर, गरीब छात्रो की भलाई के लिए ही ' साहू दिखावे के न जाने कितन मुखोटे चढ़े हुए है। उनमे ऐसा जैन ट्रस्ट" की स्थापना की, जिसकी सहायता से अनेक जैन नही था। उन्होने जो कुछ किया, दिल से किया। 'महापौर प्रजन छात्र विद्याध्ययन कर सके और प्राज बड़े वीर निर्वाणोत्सव' के साल से पहले ही उन्हे एक ऐसा बड़े पदो पर प्रतिष्ठित है। यह ट्रस्ट अब भी चल रहा उच्च सहज वातावरण मिला था, जिसमें उनकी उदारता है और अनेक नवयुवा उससे लाभान्वित हो रहे है। को उन्मुक्त अवकाश मिला। फिर तो, कही उन्होन तीर्थो साह जी की एक सबसे बड़ी विशेषता है-अनहकार । को दिया, कही मन्दिरों को, कही मुनिसघो को, कही उन्होने छोटे-बड़े का भेद किये बिना समान भाव से ग्रन्थागारो को, वही विश्वविद्यालयो को, कही उत्सवो गुणियों का समादर किया। मैं उन दिनो भारतीय ज्ञान को और कही विद्वद्पुरस्कारो को। उनको श्रद्धा का काशन समिति' का सदस्य था। एक लाख के पोर छोर नही था-मनाडम्बरित श्रद्धा। वे महामन। पुरस्कार समारोह के अवसर पर 'प्रकाशन समिति' की थे। बैठक हुमा करती थी। डा. ए. एन. उपाध्ये, डा. उन्हे अपनी जाति से प्रेम था, किन्तु उनमें जातिवाद नेमिचन्द्र शास्त्री और प० कैलाशचन्द जी भी सदस्य थे। का विष नही था। उन्होन अथक प्रयत्न किया कि चागे हमारे ठहरने का प्रबन्ध प्रायः साहू श्रेयांमप्रसाद गैस्ट सम्प्रदाय मिल कर महावीर निर्वाणोत्मव मनाये। हमा हाउस', गोल्फलिक गेड पर किया जाता था। तीन सदस्य भी ऐसे ही, किन्तु जो पाघाये भाई, वे अननुभूत और दूर के थे। वे पहले ही पा जाते थे-एक दिन पहले अकल्पनीय थी। साहू जी का स्वास्थ्य बिगड़ता गया
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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