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________________ श्रमण संस्कृति की प्राचीनता: पुरातत्व और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में है। साथ में प्राकृत व्याकरण के 'ई: श्री ही क्रीत क्लान्तक्लेशमभास्वप्नस्पर्शहर्हि गषु (प्राकृत प्रकाश ३.६२), सूत्र के अनुसार रह के मध्य ईकार का प्रागम होकर 'अरिहत' तथा प्राकृत की परम्परा के अनुसार प्रकार का मागम होकर 'महत' रूप प्राकृत भाषा मे बनता है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्राकृत भाषा मे इसका एक रूप 'प्ररूह' भी प्रयोग किया है.--'अरूहा सिद्धायरिया' (मोख पाहड़ ६।१०४) सम्भवत: इस शब्द पर तमिल का प्रभाव रहा हो। वैविक, पौराणिक एवं बौद्ध वाङ्मय में अहंत शब्द का प्रयोग विनोबा भावे ने अपने एक लेख पे ऋग्वेद के एक मत्र का उद्धरण देत हुए जैन सस्कृति की प्राचीनता सिद्ध की है। वे कहते है कि ऋग्वेद में भगवान की प्रार्थना में कहा गया है कि 'प्रहंत् इदं दयसे विश्वम्बम्", अर्थात् हे प्रहंत, तुम इस तुच्छ दुनिया पर क्या करते हो। इसमे प्रहंत और दया दोनो जैनो के प्यारे शब्द है। मेरी तो मान्यता है कि जितनी वैदिक मस्कृति प्राचीन है शायद उतनी ही जैन सस्कृति प्राचीन है। ऋग्वेद का उपरोक्त मत्र इस प्रकार है :--- प्रहत् विषि सायकानि, धन्वाहन्निष्कं यजत विश्वरूपमं । प्रहन्निदं दयसे विश्वममबं, न वा प्रो जीग्रो रूव त्वदन्यदस्ति । प्रतिष्ठातिलक के लेखक नेमिचन्द्र ऋग्वेद के उपर्युक्त मन्ध से अत्यन्त प्रभावित प्रतीत होते है । उन्होने इस मंत्र को प्राधार बनाकर निम्न प्रकार से वर्णन किया है.- २६. अर्हत् विमर्षि सायिकानि घन्वाह निष्कं यजत विश्वरूपम् । अर्हन्निद दयसे विश्वमम्बं न वा पो जीवो रुद्र त्वदन्यदस्ति ।। __ -ऋग्वेद २।४।१०१३३ २७. विनोबा भावे- श्रमण संस्कृति, पृ. ५७ २८. ऋग्वेद २।५।२२।४।१ २६. ऋग्तेद ४।३।९५२१५ (५।४।५२) ३०. ऋग्वेद ३१८६१५ (५।६।८६) ३१. ऋग्वेद ११५१९४ प्रहंत विष मोहारिविध्वंसिनवसायकान् । भनेकाम्योतिनिर्वाचप्रमाणोदार बन च ॥ ततस्त्वमेव वाप्ति पक्तिशास्त्राविरोधियाक । दृष्टष्वाधिलेष्टा स्यु. सर्व काम्तवादिनः ।। प्रहं निहाभिवत्मानं बहिरन्तम लक्षयम् । विश्वरूपं व विश्वार्थ वेदितं लभसे सदा ।। ग्रहन्मिदच वयसे विश्वमभ्यंतराधयम । नसुरासुनसघात मोक्षमार्गोपवेशनात ॥ ब्रह्मासुर यो वान्यो वेश रुद्रस्त्वस्ति । ऋग्वेद में अनेक स्थानो पर ग्रहंत शब्द का प्रयोग मिलता है 'प्रहंत देवान् यक्षि मानुषत पूर्ण प्रद्य ।"५८ "महन्तो ये सुदानवो नरो प्रसामि शवस ।"५९ "अहंता वित्युरोदय क्षेव देवायवर्तते ।"". इमस्नो हंले जातवेदसेर थमिव समहेमामनीषा। ईडित्ती अग्ने मनमाना महन्देवान्यक्षि मानषावों प्रथ। इन उल्लेखो 4 एका प्रतीत होता है कि जैन धर्म के मानने वाले हित को अपना उपास्य देव मानते थे। वराहमिहिरसहिता, योगवासिष्ठ, ब्रह्मसूत्र शकरभाष्य में भी अहंत मत का उल्लेख मिलता हैदिग्वासास्तरूणो रूपवांश्च कार्योर्हतादेवः ।।२।। वेदान्त हत सांख्य सोगत गुरुयम्मादिसूक्तादृशो।" शरीरपरिमाणो हि जीव इत्याहतामन्यते । इस प्राई । परम्परा की पुष्टि वायुपुराण", श्रीमद्भागवत", पद्मपुराणा, विष्णु पुराण" स्कन्दपुराण, ३२. ऋग्वेद २।११।३ ३३ वराहमिहिर सहिता ४५१५८ ३४. बाल्मीकि योगवासिष्ठ ६।१७३।३४ ३५. ब्रह्म सूत्र शाकरभाष्य २।२।३३ ३६. ब्रह्म शैव, वैष्णवं च सौर शाक्त तथा पाहतम् । -वायुपुराण १०४।१६ ३७. श्रीमद् भागवत ५।३।२० ३८. पद्मपुराण १३।३५० ३६. विष्णुपुराण १७-१८वा अध्याय । ४०. स्कन्द पुराण ३६-३७-३८
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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