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________________ ब्रह्म जिनदास और उनकी हिन्दी-साहित्य को देन ____D डा० प्रेमचन्द रांवका, जयपुर महाकवि ब्रह्म जिनदास १५वी शताब्दी के सस्कृत. गृहस्थ-जीवन प्रादि का कहीं कुछ विवरण नहीं मिलता। हिन्दी वाङ्मय के उद्भट विद्वान् एवं कवि थे। इन्होने परन्तु प्रारम्भ से ही सकलकीति के संघ का प्राश्रय प्रात्मसंस्कृत एवं हिन्दी भाषा के माध्यम से मा भारती की साधना की उत्कट लगन और सर्वत्र प्रपनी रचनामों मे अनुपम सेवा की। संस्कृत-भाषा में छोटे बढे १३ काव्यों अपने नाम के पूर्व 'ब्रह्म' एवं 'ब्रह्मचारी' शब्द का प्रयोम एवं हिन्दी भाषा ६० से भी अधिक लघु वहत् काव्यों के ये सिद्ध करते है कि ब्रह्म जिनदाम बाल ब्रह्मचारी थे। प्रणयन से मां भारती के भण्डार को भरकर अपना अमूल्य जिनेश्वर का भक्त होने के कारण अपने का 'जिनदास' योग दिया। कहा है। इनके जन्म एवं निधन के सम्बन्ध में भी अन्तः साक्ष्य अन्य प्राचीन कवियों की भांति 'ब्रह्म जिनदास' ने एवं बहिसक्ष्यि के प्राधार पर अभी तक कोई निश्चित' भी अपनी किसी कृति को प्रशस्ति में अपना परिचय नही जानकारी नहीं मिली है। प० परमानन्दजी शास्त्री एव दिया है। केवल जम्बस्वामी चरित्र एव हरिवश पुराण डा० कस्तूरचन्द कासलीवान ने इनका जन्म समय क्रमश की प्रशस्तियों मे भट्टारक सकलकोति को अपना अग्रज वि० सं० १४४३ एव वि० स० १४४५ के बाद का माना भ्राता एव गुरु बताया है । सकल 'कोतिनुरास' मे भट्टा० है। सवत् १४८१ मे भट्टा० सकलकोति न ब्रह्म जिनदास सकलकोति का परिचय दिया गया है। उसी के अनुसार के प्राग्रह से 'मूलाचार प्रदीप' जैसे उकाटि के प्राचार. ब्रह्म जिनदास के पिता कर्णसिंह एवं माता शोभा प्रणहिल- शास्त्र की रचना की। उस समय ब्रह्म जिनदास की प्रायु पुर पट्टण के निवासी हंबडवंशीय थे। समृद्ध परिवार कम से कम २०-२५ वर्ष की तो अवश्य होनी चाहिए। था। पर इस समृद्धि के प्रति ब्रह्म जिनदास का कोई इस दृष्टि से 'ब्रह्म जिनदास' का जन्म वि० स० १४६० लगाव न था। ये अपने प्रग्रज भ्राता भट्टा० सकल कीति या इससे पूर्व का होना चाहिए। के समान प्रारम्भ से ही ग्रहस्थ एवं संसार से विरक्त रहे । ब्रह्म जिनदास ने अपनो केवल दो रचनायो मे ही उनके साथ-साथ तीर्थयात्रा, प्रात्म-साधना एवं साहित्य- रचनाकाल दिया है, अन्यत्र किसी मे नही। एक 'राम सजन मे रत रहने लगे। इनके बाल्यकाल, शिक्षा-दीक्षा, रास' का रचनाकाल स०१५०८ एव दूसरे 'हरिवंश पुराण १. राजस्थान के जैन सन्त : डा. कस्तूरचन्द कासली- डा० कासलीवाल, पृ०६३। वाल, पृ० २३ । ५. संवत चौदह सौ इक्यासी भला, श्रावण मास महंतरे। २. श्री सकलकीरति गुरु प्रणमीनि, पूणिमा दिवसे पूरण किया, मूलाचार महतरे।। मुनि भुवनकीरति भवतार । भ्राता अनुग्रह थकी, कीधा ग्रथ महत रे ।। ब्रह्म जिणदाम कहे निरमनो, रास कियो मेसार ॥ -मूलाचार प्रदीप, भट्टा० सकलकीतिकृत ।। - प्रादिपुराण रास ६. सर ब्रह्मचारी गुरुपूर्वकोऽस्य, ३. भ्रातास्ति तस्य प्रथितः पृथिव्या सद्ब्रह्मचारी जिन- भ्राता गुणज्ञोस्ति विशुद्धचित्तः । दास नामा। -जम्ब स्वामी चरित्र ॥२८, जिनेशभक्तो जिनदास नामा, ४. राजस्थान के जैन सन्त : व्यक्तित्व एवं कृतित्व : कामारिजेता विदितो धरिम् ॥२६॥ हरिवंशपुराण
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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