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________________ ११४, वर्ष ३१, कि० ३.४ भनेकारत बड़े बाबा के गर्भगृह के प्रवेश द्वार के वायी और (अब व्यवस्था नहीं मालम होती है। हमारा ऐमा विश्वास है द्वार चौड़ा किये जाने पर इसे दायी पोर की दीवार मे कि ये मूर्तियां अन्यत्र से लाकर लगा दी हैं । जड़ दिया गया है) एक अभिलेख जड़ा हुआ है ! यह अभि लेख ऐतिहासिक दृष्टि से बहन महत्वपूर्ण है। एक फुट निश्चित ही यह प्रसग पाश्चर्यजनक है कि साक्ष्यों की ग्यारह इंच चौड़ा और एक फुट सात इव ऊचा है । इसी उपेक्षा करके उक्त मभिलेख (संवत् १७५७) मे इसे 'श्री भभिलेख में प्रतापी शासक, बदेलखण्ड के गौरव, मह राज वर्षमान या श्री सन्मति भन्दिर' कहा गया है। जब कि छत्रसाल द्वारा कुण्डलपुर को दिये गये वहमूल्य सहयोग मूर्ति के पादपीठ पर तीर्थङ्कर महावीर का लाछन सिंह या और दान का वर्णन प्राप्त होता है। अन्य कोई प्रतीक' यक्ष-यक्षी, (मातम और सिद्धायिका) अथवा कोई प्रभिलेख प्रादि उत्कीर्ण नही है। पादपीठ विक्रम सम्वत् १७५७ के इस अभिलेख मे बड़े बाबा पर दोनो पाश्वों में जो सिंह निशित हे, व श्री महावीर के के मन्दिर के जीर्णोद्धार के प्रसंग मे पद्य संख्या दो में "श्री लांछन या प्रतीक नहीं है, अपित वे सिंहासनस्थ के शक्तिवर्तमानस्य' तथा पद संख्या दम में "श्री सन्मतेः" शब्द परिचायक सिंह है, जैसे कि प्रायः अन्य सभी मूर्तियो के पाये है। इस अभिलेल की तिथि और वर्ण्य विषय पादपीठ पर ये देखे जा सकते है। ऐसा प्रतीत होता है सुस्पष्ट है। इससे केवल यह तथ्य प्रकाशित होता है कि कि यह मूर्ति श्री महावीर के नाम से इसलिए सम्बोधित सत्रहवी-प्रठारहवी शनी में यह मन्दिर 'श्री महावीर होने लगी होगी, क्योकि जन-सामान्य को महावीर स्वामी मन्दिर" के नाम से जाना जाता था। संभवत. बडे 'बाबा' के संबंध में उन दिनो कुछ अधिक जानकारी रही होगी। की यह मूर्ति भी इन्ही दिनो श्री महावीर की मूर्ति कह अब से कुछ शताब्दियो पहले भी ऐसी ही स्थिति रही लाती होगी। कदाचित् तत्कालीन भक्तो को सिहासन में है, क्योकि साधारण मनुष्य श्रद्धालु होता है । वह इतिहास, अकित दो सिंह देखकर बड़े वाबा को "महावीर" मानने धर्मशास्त्र, साहित्य और प्रतिमाविज्ञान की गहराइयो मे में सहायता मिली होगी। नहीं पैठना चाहता। अत: उसने इस मूर्ति को सहज मन्दिर सरूण ११ की विशाल मूर्तियों को ध्यान से भाव से 'बड़े बाबा' कहते हुए भी महावीर के नाम से जाना। देखने पर प्रतीत होता है कि बड़े बाबा की विशाल मूर्ति का सिंहासन दो पाषाण खडों को जोड़कर बनाया गगा है। यस्तु, जनमामान्य की धारणा के विपरीत अनेक ऐसे बडे बाबा की मूर्ति के दोनों ओर उन्ही के बराबर ऊंची ठोस प्रमाण ठोस प्रमाण है जिनके प्राधार पर बड़े बाबा को श्री महावीर भगवान पार्श्वनाथ की दो कायोग मूर्तिया भी है। इनके स्वामी की मूर्ति मानने में शास्त्रीय और प्रतिमाविज्ञान सिंहासन निजी नहीं, बल्कि अन्य विशाल कायोत्सर्ग संबंधी प्रनेक बाधाये है। यह मूति वास्तव मे, प्रथम तीर्थमूर्तियों के अवशेप प्रतीत होते है। इन मूर्तियो के सिंहासन ङ्कर, युगादिदेव, भगवान ऋषभदेव की है। इस संबंध में कदाचित कभी बदले गये हो। यदि ऐसी काई राम्भावना मेरे निष्कर्ष निम्न प्रकार है:हो भी, तो यह बात माततायियों के प्राक्रमण के बाद की बड़े बाबा की इस मूर्ति के कन्धों पर जटामों को दोही हो मकती है। दो लटें लटक रही है। साधारणतः तीर्थङ्कर मूर्तियो की इस सबके साथ यह बात सहज ही स्वीकरणीय है कि केशराशि धुंघराली और छोटी होती है। उनके जटा मोर जीणोद्वार के पश्चात् (गत दो-तीन शताब्दियों मे) बड़े जटाजट नही होते । किन्तु भगवान ऋषभनाथ की कुछ बाबा के गर्मगृह में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गये है। मूर्तियों में प्रायः इस प्रकार के जटाजूट मथवा जटायें दिखाई जै गर्भगृह के भीतर चारो ओर दीवारो पर मूर्तियां जिस देती है। भगवान ऋषभदेव के दीर्घकालीन, दुदर तपश्चरण ढंग से जड़ी हुई है, उनमे कोई निश्चित योजना अथवा के कारण उनकी मूर्ति मे जटायें बनाने की परम्परा
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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