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________________ कबीर की वाणी में वीर-वाणो की गूज 0 श्रीमती कुसुम जैन सोरया, एम. ए., बी. एड. कान्तिद्रष्टा कबीर रहा है। जीवतत्त्व या चैतन्य शक्ति ही इस दृश्यमान मध्ययुगीन काव्य जगत में जिन कवियों ने जीवन को जगत् में वह पारस-निषि है, जिसके बिना संसार की बड़ी सूक्ष्मता और गहरे उतर कर देखा, उनमें सन्त कबीर अनन्त वस्तुयें निरर्थक पोर अनुपयोगी हैं। इस सन्दर्भ में का नाम प्रमुख है : इन्होंने रूपकों और जीवन के व्याव. कवीर को यह साखी कितनी युक्तिपुक्त है: हारिक प्रतीकों के माध्यम से अध्यात्म की अभिव्यक्ति पारस रूपी जीव है, लौह रूप संसार । वड़ी कुशलता से की है। गूढ़ रहस्यों और तत्त्वों को पारस से पारस भया, परख भया टकसार ॥ बोलचाल की भाषा मे रखकर साहित्य जगत को एक यह जीव पारस के समान अमूल्य है। इस जीव की व्यापउपलब्धि प्रदान की है। प्रस्तुत लेख में कबीर के ऐसे कता का ज्ञान कर लेने पर ही यह संसारी प्राणी (लोह) विचार प्रसून प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जिनमें जैन-दर्शन के पारस की तरह प्रमूल्य बन जाता है। यहाँ 'परख' से सिद्धान्तों के पराग पूर्णरूपेण परिलक्षित है। ऐसा लगता तात्पर्य अपनी पहिचान करने से है, क्योंकि बिना पहिचान है कि महात्मा कबीर उस धर्म से ज्यादा प्रभावित रहे. के यह अपनी अनन्त शक्तियों को भला हमा है। जो बाह्य क्रियाकाण्डों, अन्धविश्वासों और रूढ़ मान्यतामों के पक्ष में अपनी प्रस्वीकृति का हाथ उठाये रहा। इसके जीवत्व में सिद्धत्व साथ नसे हो सच्चा धर्म माना, जिसमें प्रात्मा या जीव प्रत्येक जीव अपने में अनन्त सम्भावनायें समेटे हुए तत्त्व को परमात्मा तक पहुंचाने की घोषणा है। जो सत्य है। भ. महावीर ने कहा : शक्तिरूप तं सिदबद्ध वृष्टि, सद्ज्ञान और सदाचरण के ऐक्य पर जोर देता हैं। निरजन है। परन्तु इसकी अभिव्यक्ति प्रसुत्त है । जागति जनकल्याण से अभिभूत कबीर न तो किसी सम्प्रदाय के बिना सच्ची दृष्टि कैसे प्राप्त की जा सकती है? कबीरदलदल में ही पड़े और न ही पाखण्डों के पोषण में अपनी दास जी ने एक मार्मिक साखी के द्वारा इस तथ्य को जीवन साधना गंवाई। इसलिए वे निष्पक्ष रूप से एक उजागर करने का प्रयास किया है : समाज सुधारक और माध्यात्मिक भावनामों के समर्थक बूंद जो परा समुद्र मे, सो जानत सब कोय । कहे जा सकते हैं। समुद्र समाना बूंद में, सो जाने विरला कोय ।। वोर-वाणी के अनुगूंज-स्वर इस बात को सभी जानते हैं कि यह जीवात्मा शरीर १. स्वयं बोध धारण कर संसार में जन्म प्रोर मरण की प्रक्रिया कर रही है, लेकिन इसकी अनन्त शक्ति और योग्यता को भ. महावीर की वाणी वीतराग-वाणी है, जिसमें बिरला ही कोई जान पाता है। जिसमें इस सष्टि को जीव के परम कल्याण और प्रारम पुरुषार्थ की जीवन्तता जानने की योग्यता है, वह बंद हमारी प्रात्मा, अपने में है। भ. महावीर स्वामी ने किसी बात पर प्रमुख पोर समद्र अर्थात ससार को ही सोख लेती है, अर्थात् जीव मन्तिम रूप से जोर दिया तो वह है-स्वयं बोध ।' के सहज स्वरूप में संसार बिजित हो जाता है। जीव स्वयं से परिचय के कारण ही यह जीव दुःखमूलक की इस विलक्षणता को सब नहीं जान पाते। जैनदर्शन सम्पदामों को एकत्र कर उनसे तादात्म्य स्थापित कर की कितनी गहरी अनुमति कबीर में उपजी होगी, इस
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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