Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 201
________________ तत्त्वार्थसूत्र में न्याय-शास्त्र के बीज । डा० दरबारीलाल कोठिया, वाराणसी तित्वार्थसूत्र के कुछ स्थानों में पाठ भेद ग्रवश्य है, किन्तु यह पाठ-भेद दिगम्बर प्रौर श्वेताम्बर दोनों ग्राम्नायों के मतभेद का परिणाम है । इम पाठ-भेद या मतभेद का निर्णय इस बात के निर्णय पर निर्भर है कि तत्वार्थसत्र का जो भाष्य प्रचलित है वह स्वोपज्ञ है या नहीं। एक प्रोर यह निर्णय है और दूसरी ओर वे कुछ प्रश्न हैं जो अब नये नये उठाये जा रहे है। ऐसे प्रश्नो में एक यह भी है कि तत्वार्थसूत्रकार प्राचार्य उमास्वामी (या उमास्वाति) पहले हुए या कि प्राचार्य कुन्दकुन्द । अब तक यही माना जाता रहा है और ऐसा ही है भी कि प्राचार्य कुन्दकुन्द पहले हए और प्राचार्य उमास्वामी उनके बाद । इस तथ्य की पुष्टि में प्रवर मनीषी डा. दरबारीलाल कोठिया ने प्रस्तुत लेख में उदाहरण और मूल-सन्दों के साथ, ठोस तर्क दिये हैं। -सम्पादक] तत्वार्थसूत्र जन परम्पग का एक महत्त्वपूर्ण प्रौर का पर्याप्त, या यो रहिए कि प्राय: पूरा, निरूपण उपलब्ध प्रतिष्टित ग्रन्थ है । इसमे जैन तत्वज्ञान का अत्यन्त संक्षेप होता है। और प्राजल मंस्कृत गद्यगुत्रो में बड़ी विशदता के साथ अब प्रश्न है कि इस वर्म और दर्शन के ग्रन्थ में क्या प्रतिपादन किया गया है। इग के रचगिग प्राचार्य गद्ध- उनके विवेचन या सिद्धि के लिए न्याय का भी अवलम्बन पिच्छ है जिन्हे उमाम्वामी और उमास्वाति के नामो से लिया गया है ? इम प्रश्न का उत्तर जब हम तत्वार्थसूत्र भी जाना जाता है। का गहराई और सूक्ष्मता से अध्ययन करते है तो उसी से इसमें दस अध्याय है। प्रथम अध्याय में रत्नत्रय के मिल जाता है। रूप में मोक्षमार्ग का उल्लेख करते हुए सम्यग्दर्शन, उपके न्याय का स्वरूप प्रमाण और नय विषय भत जीवादि सात तत्वो, उन्हे जानने के उपायो और न्यायदीपिकाकार अभिनव धर्मभूषण ने न्याय का सम्यग्ज्ञान का निरूपण किया गया है। दूगरे, तीसरे और स्वरूप देने हा लिखा है कि 'प्रमाण और नय' दोनो चौथे अध्यायों मे जीव तत्व का लक्षण, उसके विभिन्न न्याय है, क्योंकि उनके द्वारा पदार्थों का ज्ञान किया जाता भेदो, उससे सम्बन्धित पारीरो, जन्मो, योनियो, प्रावासो है। उनके अतिरिक्त, उनके ज्ञान का अन्य कोई उपाय (रत्नप्रभा मादि नरक भूमियो, जम्बूद्वीप, लवण समुद्र आदि नही है, जैसा कि उनके निम्न प्रतिपादन से स्पष्ट हैमध्यलोक के स्थानो और देव निकायो) तथा उनसे प्रमाणतयाभ्यां हि विवेचिता जीवादयः सम्यगघिसम्बद्ध प्रावश्यक जानकारियो का प्रतिपादन निबद्ध है। गम्यन्ते । तद्वयतिरेकेण जीवाद्य धिगये प्रकारान्तरा पांचवें अध्याय में अजीव तत्व और उसके पुद्गल, धर्म, सम्भवात' न्या० दी०, पृ० ४। अधर्म, प्राकाश, काल इन पांच भेदो का, छठे और सातवे 'न्याय' शब्द की व्युत्पत्ति भी इस प्रकार दी गई है अध्यायों में प्रास्रव तत्त्व (पापास्रव और पुण्या स्रव का), कि 'नि' पूर्वक 'इण गतो' घातु से करण अर्थ में घञ्प्रत्यय पाठवें में बन्धतत्व का, नवयें में सवर पौर निर्जर। तत्वों करने पर न्याय शब्द सिद्ध होता है। "नितरांमियते का तथा दशवें में मोक्षतत्व का विवेचन है। इस तरह ज्ञायतेऽर्थोऽनेतेति न्यायः, अर्थ परिच्छेदकोपायो न्यायः जैन धर्म के प्रसिद्ध सात तत्वो का इसमें साङ्गोपाङ्ग कथन इत्यर्थः । स च प्रमाणनयात्मक एव'। पर्थात् निश्चय से किया गया है और इस प्रकार हमें इसमें धर्म और दर्शन जिसके द्वारा पदार्थ जाने जाते है वह न्याय है और वह १. प्रमाणनयात्मकन्यायस्वरूपप्रतिरोधकशास्त्राधिकार सम्पत्तये प्रकरणमिदमारभ्यते ।' --- न्याय दी., पृ. ५ वीर सेवा मन्दिर-संस्करण, सन् १९४५. २. न्याय दी. टिप्प.पू. ५, सस्करण पूर्वोक्त ।

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