Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 203
________________ ११८, वर्ष ३१, कि० ३.४ अनेकान्त छह (भाट्ट मीमांसक स्वीकृत) भेदों का समावेश उसके को स्त्री और स्त्री को माता कह देता है। उसी प्रकार, उक्त प्रमाणतय (प्रत्यक्ष और परोक्ष) में ही हो जाता है। मति, श्रुत और प्रवधि (विभङ्ग) ज्ञान भी सत्-असत् का तत्त्वार्थसूत्रकार' जब मति स्मृति संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान) भेद न कर कभी काचकामलादि के वश वस्तु का विपरीत चिन्ता (तर्क) और अभिनिबोध (अनुमान) को भी (अन्यथा) ज्ञान करा देते हैं। अतः ये तीन ज्ञान मिथ्याप्रमाणान्तर होने का संकेत करते हुए उन्हें मतिज्ञान कहते ज्ञान भी कहे जाते है। है और उनका इन्द्रिय मन पूर्वक होने के कारण परोक्ष तत्वार्थसूत्रकार के इस प्रतिपादन से स्पष्ट है कि में अन्तर्भाव करते है तो उनकी यहां निश्चय ही तार्किक तत्त्वार्थसूत्र में न्यायशास्त्र भी समाहित है। सबसे महत्वदृष्टि लक्षित होती है। उनकी इस दृष्टि से प्रकाश लेकर पूर्ण बात यह है कि उनके समय में भी तीन ही अनुमानापूज्यपाद ने न्यायदर्शन मादि में पृथक प्रमाण के रूप में वयव वस्तु सिद्धि में प्रचलित थे, उपनय और निगमन को स्वीकृत, उपमान, आगम प्रादि प्रमाणों को परसापेक्ष अनुमानावयव स्वीकार नही किया जाता था या उनका होने से परोक्ष में अन्तर्भाव कर लिया है और तत्त्वार्थ- जैन सस्कृति में विकास नही हपा था। तत्त्वार्थ मूत्रकार मूत्रकार के प्रमाणद्वय का समर्थन किया है। प्रकलंक ने' के उत्तरवर्ती प्राचार्य ममन्त भद्र ने भी देवागम (प्राप्त. भी उनके प्रमाण द्वय की ही सम्पुष्टि की है। साथ ही मीमासा) मे उन तीन प्रवावो से ही अनेक स्थलों पर नये पालोक में प्रत्यक्ष-परोक्ष की परिभाषाम्रो और उनके वस्तुसिद्धि की है। ताकिक भेदो का भी प्रतिपादन किया है। उत्तरकाल में तत्त्वार्थसूत्रकार का तीन अवयवो से वस्तु-सिद्धि का तो प्रा० गद्ध पिच्छ का अाधार लेकर प्रकलक ने जो एक उदाहरण और यहा प्रस्तुत है। तत्त्वार्थसूत्र के दशवें प्रमाणनिरूपण किया उसी पर विद्यानन्द, माणिक्यननिर अध्याय के पाचवें सूत्र में मुक्त जीव के ऊर्ध्वगमन को प्रादि ताकिक चले है। सयुक्तिक सिद्ध करते हुए तत्त्वार्थमूत्र कार ने लिखा हैअनुमान के (पक्ष, हेतु और उदाहरण) तीन अवयवों १ पक्ष -तदनन्तर (युका) ऊर्ध्वगच्छत्या से सिद्धि: लोकान्तात् । तत्त्वार्थसूत्र में कुछ सिद्धान्तों की सिद्धि अनुमान २. हेतु पूर्वप्रयोगात् प्रसंगत्वात् बन्धच्छेदात् तथागति परिणामाच्च । (युक्ति) से को गयी है। उन्होंने अनुमान प्रयोग के तीन ३. उदाहरण--प्राविद्धकुशल चक्रवत्, व्यपगत लेपाअवयवों पक्ष, हेतु और उदाहरण से मति, श्रुत और अवधि 1, श्रुत मार अवाघ लायुवत् एरण्डबीजवत् भग्निशिखावच्च । इन तीनों ज्ञानों को विपर्यय (अप्रमाण-प्रभाणाभास) __ ---त. सू. १०-५, ६, ७॥ सिद्ध करते हुए प्रतिपादित किया है। अर्थात् द्रव्यकर्मों और भावकों से छूट जाने के बाद १. पक्ष-मतिश्रुतावघयो विपर्यय च । मक्तजीव लोक के अन्त पर्यन्त ऊपर को जाता है, क्योंकि २. हेतु-सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्ध । उसका ऊपर जाने का पहले का अभ्यास है, कोई सग ३. उदाहरण-उन्मत्तवत् । -त. सू. १-३१-३२ (परिग्रह) नहीं है, कर्मबन्धन नष्ट हो गया है और उसका अर्थात् मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान विपर्यय ऊपर जाने का स्वभाव है। जैसे कुम्हार का चाक, लेप (मिथ्या अप्रमाण प्रमाणाभास) भी है, क्योकि उनके द्वारा रहित तुमरी, एरण्ड का बीज और अग्नि की ज्वाला। सत् (समीचीन) और असत् (मसमीचीन) का भेद न मुक्त जीव के ऊवं गमन को सिद्ध करने के लिए सूत्रकार कर स्वेच्छा से उपलब्धि होती है, जैसे उन्मत्त (पागल ने चार हेतु दिये पोर उनके समर्थन के लिए चार उदापुरुष) का ज्ञान । उन्मत्त व्यक्ति विवेक न रखकर माता हरण भी प्रस्तुत किये है। इस तरह अनुमान से सिद्धि १. त. सू..,१३, १४ । ६. अनुपदिष्ट हेतुकमिदमूर्ध्वगमनं कथमध्यसातुं शक्य२. सर्वार्थसि०५-११ । मिनि? भत्रोच्यते । प्राह हेत्वर्थः पुष्कलोऽपिदृष्टान्त ३. लघीय०१/३ ।। समर्थन गन्तरेणाभिप्रेतार्थसाधनाय नालमिति उच्यते ४. प्रमाण परीक्षा, पृ. २८। ५ परीक्षा म०३-१,२। सर्वार्थसिद्धि. १०-६, ७ की उत्पातिकाए ।

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