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१२४, वर्ष ३१, कि० ३.४
अनेकान्त
अध्ययन-शील रहने पर भी प्राणी को अभीष्ट की प्राप्ति क्रिया व वैराग्य से स्वग्रहण होता है। अन्य पदार्थ के नहीं हुई।
प्रहण की वत्ति छुट जाती है। अतएव कषाय निराश्रित प्रात्मा प्रनत गुणों का भडार है। ज्ञान प्रात्मा का हो क्रमशः कृश होती जाती है और प्रत्मा को स्वच्छता असाधारण गुण या लक्षण है। इसके द्वारा ही प्रात्मा को निखरने लगती है। ग्रहण किया जा सकता है तथा अन्य गुण भी ज्ञान के
स्वाध्याय से प्रात्म गुणों को अभिवृद्धि : द्वारा ग्रहण होते है। ज्ञान चराचर ममस्त जेय को विषय बनाता है।
ज्ञान में ज्ञान की स्थिरता हेतु स्वाध्याय दिशेष प्राव
श्यक है । स्वाध्याय के क्षणो मे व्यक्ति अनेक चितामों से भान प्रज्ञान में अंतर
उन्मुक्त हो जाता है। दत्तचित्त हुए बिना स्वाध्याय नही प्रयोजन सिद्धि के लिए ज्ञान-प्रज्ञान की परिभाषा
हो सकता। इससे 'स्व' अध्ययन की प्रेरणा, मार्गदर्शन भली भांति विदिन हो जाना उचित है। जो प्रयोजन को
मिलता है । आत्म-निरीक्षण की वृत्ति, अनुसंधान कर गुणों सिद्ध करे वह ज्ञान, शेष सब अज्ञान है। ज्ञान का पारप
को अभिवृद्धि एव दोषो का परिमार्जन करती हुई प्रगति रिक फल निर्मल केवल-ज्ञान की प्राप्ति है। जहा ज्ञान में
पथ पर चल पड़ती है। युगों-युगों से चली आ रही भूलों कुछ भी मिश्रण नही, केवल ज्ञान हो ज्ञान है। यह
का उन्मूलन कर भात्मविशुद्धि कर कल्याण किया जा सुनिश्चित है कि ज्ञान के साथ अन्य लोकिक सदा अनु
सकता है। प्रात्मकल्याण में सलग्न व्यक्ति अन्य प्राणियो पंग रूप से होती ही है, परन्तु ज्ञानी को अन्तरानुभूति के
के कल्याण मे भी पूर्णत: सतर्क रहता है, अर्थात् वाधक सूख के समक्ष धन-संपत्ति तृणवत् तुच्छ प्रतिभासित
नही बनता। उसके विचारो मे सरलता, सहिष्णुता प्रा होती है।
जाती है तथा प्राचरण सात्विक-सीमित कर वह प्रात्मय तो ज्ञान के प्रभाव में अज्ञानी को भी विशेष
गुणो की समृद्धि मे रत रहता है। सपदा, ऋद्धि-सिद्धि प्रादि उपलब्ध हो जाती है, पर शाश्वत प्रानंद की प्राप्ति नहीं होती। समय पाकर सामग्री विनष्ट कला 'स्व' में विराम लेने की: हो जाती है, क्योकि क्षण-भंगुरता उसका स्वभाव है। ज्ञान ज्योति प्रत्येक प्रात्मा में सदैव दीप्त है, जिसके
हमान के सदभाव में भी मात्र वैभव प्राप्त हो तो द्वारा विश्व के पदार्थ प्रकाशित हो रहे है। निरंतर स्वा. जान-प्रज्ञान में अन्तर ही क्या रहा ? ज्ञान का विशिष्ट ध्याय कर स्वयं को भी प्रकाशित किया जा सकता है। या अतिरिक्त फल शाश्वत मुक्ति की उपलब्धि है। ज्ञान ज्योति उद्दीप्त हो सकती है। प्राकर्षण-विकर्षणों से
हटकर अपने में संयत रहना अत्यंत कठिन कार्य है। प्रज्ञानी ज्ञान से वैभव आदि फल की अभिलाषा
स्वाध्याय के बल पर 'स्व' में विश्राम करने का अभ्यास रखते है। प्रसृत से विष-प्राप्ति की इच्छा करते हैं। सत
विष-प्राप्ति की इच्छा करते हैं। सत् हो सकता है। में असत् को खोजते हैं। प्रज्ञान सर्प की भाँति विर्षला है। इसके दंशन से कषायों की ऐंठन होती है। दंशित चेतना 'स्व' के प्रति समर्पित हो: प्राणी निविष होने के लिए संसार-रूपी कच्चे कूप का प्रथम तो हमें यही ज्ञात नही कि शरीर के पार भी जल पीने का उपक्रम करते है. परन्तु विषय भोगों की कोई इससे विलक्षण वस्तु है। कदाचित् प्रात्मा नामक अनवरत वर्षा से तृष्णा के दलदल में फिमल-फिसल कर वस्तु का अस्तित्व मान भी लिया तो उसकी पोर की गिर जाते हैं। अज्ञानी का सारा पुरुषार्थ पदार्थाश्रित अभिरुचि जागी नहीं। समस्त परिचय शरीर व शरीर रहता है, जब कि ज्ञानी का पुरुषार्थ प्रात्मस्थित होने के सम्बन्धी अन्य पदार्थों से ही रहा है। जो वस्तु प्राज तक लिए होता है।
प्रत्यक्ष परिचय मे नही पाई, मन का मोड़ उस भोर होता कपाय प्रज्ञान में पनपती है। विवेकपूर्वक ज्ञान की नहीं। यद्यपि उसका अनुभव हमे प्रतिक्षण हो रहा है,