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जैन पुराणों में समता
श्री देवीप्रसाद मिश्र
प्रारम्भ में बौद्ध और जैन धर्म को वर्ण-व्यवस्था तथा में वर्ण-संकरता नही थी और उनके विवाह, जाति-संबंध जातिवाद स्वीकार न होने के कारण वे उसका विरोध एव व्यवहार प्रादि सभी कार्य वर्णानुसार होते थे। महाकरते थे । बौद्ध धर्म अपने इस सिद्धान्त का पालन करते पुराण के अनुसार, पहले वर्णव्यवस्था नही थी, परन्तु हुए दृढ रहा, परन्तु कालान्तर मे जैनो ने इस देश की कालान्तर मे ग्राजीविका के प्राधार पर चातुर्वर्ण्य व्यवस्था मुख्य धारा मे बहते हुए एक समन्वित मामाजिक व्यवस्था हुई। रविषेणाचार्य ने जाति व्यवस्था का खण्डन किया को जन्म दिया, जिसमें ब्राह्मणों के स्थान पर क्षत्रियो को है।' पद्मपुराण में किसी भी जाति को निन्दनीय नही प्रमुखता दी गई है। इसी को मान कर उन्होंने पुगणो बताया गया है। सभी में समानता का दर्शन कराके गुण की रचना करके यह प्रतिपादित करने का प्रयास किगा को कल्याणक माना है। यही कारण है कि व्रती चाण्डाल है कि उनके सभी विषष्टिशनाका-पुरुष क्षत्रिय कुल में को गणधगदि देव ब्राह्मण कहते हैं। रविषेणाचार्य ने उत्पन्न हुए थे । ५० फूलचन्द्र जी का विचार है कि जैन- ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल के प्रति समता मागम-साहित्य मे चातुर्वर्ण्य व्यवस्था नहीं है। परन्तु यह का दृष्टिकोण अपनाया है । जैन पुराणों में सभी के प्रति मत प्रमान्य है, क्योकि जैन-प्रागमो में बभण, खत्तिय, समता का भाव दिखाया गया है। इसीलिए श्री गणेश मुनि वहस्स तथा सह नाम के चार वर्णों का उल्लेख मिलता ने कहा है कि पहले वर्णव्यवस्था मे ऊंच-नीच का भेद-भाव है, जो क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र है। नहीं था। जिस प्रकार चार भाई कोई काम प्रापस में
जैन सूत्रों के अनुसार कर्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य बाटकर आपस में सम्पादित करते है, उसी प्रकार चातुतथा शद्र की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार का विचार वर्ण्य-व्यवस्था भी थी। कालान्तर मे इस व्यवस्था के साथ जैन पुराणो में भी मिलता है। लोग अपने योग्य कर्मों को ऊंच-नीच का सम्बन्ध जड़ गया, जिससे विशुद्ध सामाकरते थे, वे अपने वर्ण की निश्चित प्राजीविका छोड़कर जिक व्यवस्था में भावात्मक हिंसा का सम्मिश्रण हो गया। दूसरे की भाजीविका को ग्रहण नहीं करते थे, उनके कार्यों जैन पुराणों के अनुसार, चारों वर्गों का विभाजन माजी१. ५० फूलचन्द्र : वर्ण, जाति और धर्म, काशी १९६३, तुलनीय-चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। पृ० १६७।
-गीता, ४.१३ । २. डा. जगदीशचन्द्र जैन, जैन पागम साहित्य मे भार- ६. पद्मपुराण, ११.१६५-२०२ ।
तीय समाज, वाराणसी, १९६५, पृ० २२३ । ७ न जातिर्गहिता काचिद्गुणाः कल्याणकारणम् । ३. उत्तराध्ययनसूत्र, २५.३३ ।
व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ।। ४. यथास्व स्वोचितं कर्म प्रजादधुरसकरम् ।
-पद्मपुराण, ११.२०३; महापु०, ७४.४८८-४६५; विवाहजातिसबंधव्यवहारश्च तम्मतम् ॥
तुलनीय-महाभारत, शान्तिपर्व, १८६.४-५! -महापुराण, १६.१८७ ।
वरांगचरित, २५.११ । ५. मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा ।
८. पद्मपुराण, ११.२०४ । वृत्तिभेदाहितभेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते ॥
६. गणेश मुनि, 'प्रागैतिहासिक व्यवस्था का मूल रूप', महापुराण, ३८.४५ जिनवाणी, जयपुर १९६८, वर्ष २५, अंक १२, पृ.६।