Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 204
________________ तत्वार्थ सूत्र में न्याय शास्त्र के बीज ११४ या विवेचन करना न्यायशास्त्र का अभिधेय है। यद्यपि और विसर्प (विस्तार) होता है, जैसे -प्रदीप; दीपक को साध्य-बिनाभावी एक हेतु ही विवक्षिन प्रर्थ की सिद्धि के जैसा प्राश्रय मिलता है उसी प्रकार उसका प्रकाश हो लिए पर्याप्त है, उसे सिद्ध करने के लिए अनेक हेतुपों का जाता है। इसी तरह जीवों को भी जैसा प्राश्रय प्राप्त प्रयोग और उनके समर्थन के लिए अनेक उदाहरणों का होता है वैसे ही उसमें समव्या'त हो जाते है। प्रतिपादन मावश्यक है। किन्तु उस युग मे न्याय-शास्त्र सत में उत्पाद व्यय और धोव्य की सिद्धि: का इतना विकास नहीं हुअा था। वह तो उत्तरकाल में द्रव्य का लक्षण तत्त्वार्थसूत्र में प्रागमानुसार उत्पाद, हुआ है। इसी से प्रकलंक, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि प्रादि व्यय और ध्रोव्य की युक्तता को बतलाया है । यहा प्रश्न' न्यायशास्त्र के प्राचार्यों ने साध्य (विवक्षित अर्थ) की उठा कि उत्पाद, व्यय अनित्य (माने जाने) रूप है और सिद्धि के लिए पक्ष और हेतु इन दो ही अनुमान का ध्रौव्य (स्थिरता) नित्यरूप है। अंग माना है। उदाहरण को भी उन्होंने नही माना, उसे वे दोनो (अनित्य और नित्य, एक ही मत् में कैसे रह अनावश्यक बतलाया है। तात्रयं यह कि तत्त्वार्थ मूत्रकार सकने ? इसका उत्तर सूत्रकार ने हेतु का प्रयोग करके के काल में परोक्ष अर्थों की सिद्धि के लिए न्याय (युक्ति दिया है । उन्होने कहा कि मुख्य (विवक्षित) और गोण अनुमान) को पागम के साथ निर्णय-माघन माना जाने (अविवक्षित) की अपेक्षा से इन दोनों की एक ही सत में लगा था। यही कारण है कि उनके कुछ ही काल बाद सिद्धि होती है। द्रव्याश की विवक्षा करने पर उसमें हुए स्वामी समन्तभद्र न युक्ति और शास्त्र दोनों को प्रर्थ नित्यता और पर्यायाश की अपेक्षा से कथन करने पर के थार्थ प्ररूपण के लिए पावश्यक बतलाया है। उन्होने अनित्यता की गिद्धि है। इस प्रकार, युक्तिपूर्वक सबका यहाँ तक कहा है कि बीर जिन इसलिए प्राप्त है क्योकि उत्पाद पय, ध्रौव्य रूप नयात्मक या अनेकान्तात्मक सिद्ध उनका उपदेश युक्ति और शास्त्र से अविरुद्ध है । नस्वार्थ- किया गया गया है। सूत्र के उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि उसमें न्यायशास्त्र के इस तरह तत्त्वार्थसूत्र हम धर्म, दर्शन और न्याय तीनो बीज समाहित है, जिनका उत्तरकाल में अधिक विकास का सम्मान करने वाला जन वाहमय का अद्वितीय ग्रंथ हुआ है। है । गम्भवत: इमी में उसकी महिमा एवं गरिमा का गान तस्वार्थ मुत्र के पाचवें अध्याय के पन्द्रह पोर मालवे करते हए उत्तरवर्ती प्राचार्यों ने कहा है कि इस तत्त्वार्थसूत्र सूत्रो द्वारा जीवों का लोकाकाश में अमरूधातवे भाग से का जो एक भी बार पाठ करता है या सुनता है उसे एक लेकर सम्पूर्ण लोकाकाश के प्रवगाह प्रतिपादन किया गया उपवास करने जितना फल प्राप्त होता है। तत्त्वार्थमूत्र की है। यह प्रतिपादन भी पनुमान के उक्त तीन अवयवों इस महिमा को देखकर प्राज भी समाज में उसका पठनद्वारा हा है। पन्द्रहवा सूत्र पक्ष के रूप में प्रोर सोलहवा पाठन सबसे अधिक प्रचलित है और पर्युषण (दशलक्षण) सूत्र हेतु तथा उदाहरण के रूप में प्रयुक्त है। 'जीवो का पर्व मे तो उस पर व्याख्यान भी दिये जाते एवं सुने जाते प्रवगाह लोकाकाश के प्रसख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण है। इत्यलम् । लोकाकाश में है, क्योंकि उनमें प्रदेशों का संहार (संकोच) 000 १. एतद्वयमेवानुमानाडूनोदाहरणम्-परीक्षा० ३.३७ यायावति. का. ३८१ अकलंक प.। पत्रपरी. पृ. । २. 'युक्तिशास्त्राविरोधिवाक' देवागम (पाप्ममी.) का ६। ३. प्रसंख्येयभागादिषु जीवानाम् (अवगाहः) प्रदेश महार विसर्पाभ्याम् प्रदीपवत् । - त. सू. ५, १५' १६ । ४ मनु श्वमेव विरुवं तदेव नित्यं तदेव नित्यगति। यदि नित्य व्ययोदयाभावाद नित्यताव्याघातः। अथानित्यमेव स्थित्य भावन्नित्यता व्याघातः इति? नैत सिद्धय-कुतः ? ५. मापितानपित सिद्ध ५.३२। ६. स. सि. ५, ३२। ७. दशाध्याये परिच्छन्ने तत्वार्थ पठिते सति । फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनि पूङ्गवः ॥ -अज्ञात व्याख्याकारकृत

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