Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 202
________________ तस्वार्थसूत्र में ग्याय-शास्त्र के बीज ११७ प्रमाण एवं नयरूप ही है, क्योंकि उनके द्वारा पदार्थों का तत्वार्थग मे ही सर्वप्रथम उपलब्ध होता है। कया जाता है । अतएव जन दर्शन में प्रमाण अरि तत्वार्थसूत्र में न्याय के दूसरे अङ्ग नय का भी प्रतिनय न्याय है। पादन है और उसके सात भेदों का निर्देश किया गया है।' तस्वार्थसूत्र में प्रमाण, प्रमाणाभास और नय : वे है नगम, सग्रह व्यवहार ऋज-सूत्र शब्द समभिरूढ मोर न्याय के उक्त स्वरूप के अनुसार तत्वार्थसूत्र में एवभूत । टीकाकारों ने इनका विस्तृत विवेचन किया है। प्रमाण और नय दोनों का प्रतिपादन उपलब्ध है। तत्वार्थ प्रमाण के प्रत्यक्ष-परोक्ष भेद : सूत्रकार ने स्पष्ट कहा है कि प्रमाण और नयों के द्वा। प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से प्रमाण के दो भेदो को पदार्थों का यथार्थ ज्ञान होता है, यथा -- बतला कर उसका तत्वार्थसूत्र में विशदता के साथ प्रमाणनपरधिगम ।--- त. सू. १.६ । प्रतिपादन किया गया है । मति और श्रुत इन दो ज्ञानो इससे स्पष्ट है कि तत्वार्थसूत्र में जहा धर्म और दर्शन को परोक्ष तथा अवधि मनःपर्यय और केवल इन तीन का प्रतिपादन किया गया है वहाँ प्रमाण और नयरूप ज्ञानों को प्रत्यक्ष कहा गया है।' तत्वार्थसूत्रकारों ने परो. न्याय का भी प्रतिपादन है। क्षता और प्रत्यक्षता का भी कारण बतलाते हुए लिखा है षटखण्डागम प्रादि पागम ग्रन्गों में ज्ञानमार्गणा न कि चूकि प्रादि के दोनो (मनि और अति) ज्ञान इन्द्रियों अन्तर्गत ज्ञानमीमामा के रूप मे पाठ ज्ञानो का वर्णन किया और मन की सहायता से उत्पन्न होते है, प्रतः परापेक्ष गया है । परन्तु वहा उन ज्ञानो का प्रमाण और प्रमाणा- होने से वे परोक्ष कहे गये है और अन्य तीन ज्ञान (प्रवधि, भाम के रूप में कोई विभाजन दृष्टिगोचर नहीं होता। मन पर्यय और केवल) इन्द्रियों और मन की सहायता पर तत्वार्थसूत्र में पागमणित पांच सम्यग्ज्ञानों को से न होने तथा मात्र प्रात्मा की सहायता से होने के प्रमाण' और तीन मिथ्याज्ञानो को प्रमाणाभाम' (अप्रमाण- कारण प्रत्यक्ष बतलाए गये है। यह प्रमाणद्वय का भेद विपर्यय) बताकर दार्शनिक एव न्यायिक दृष्टिकोण प्रागमिक न होकर नाकिन है जिसका अनुसरण उत्तरप्रस्तुत किया गया है । मति प्रादि पांच ज्ञानो को प्रमाण वर्ती प्रकलक, विद्यानन्द प्रादि सभी जैन ताकिको ने तथा विपरीत मति, विपरीत श्रुत और विपरीत अवधि किया है । भारतीय न्यायशास्त्र मे ६ किये गये प्रमाण के (विभगज्ञान) इन तीनो ज्ञानों को विपर्यय-प्रमाण दो (वैशेषिक और बौद्ध स्वीकृत), तीन (साख्यमान्य), प्रमाणाभास के रूप मे निरूपण संस्कृत भाषा के ग्रन्थों में चार (नैयायिक सम्मत), पांच (प्रभाकर प्रङ्गीकृत) और १. मतिश्रुतावधि मन.पर्यययकेवलनानि ज्ञानम्, 'तत्प्रमाणे' (नियमसार, गा. १०) भी प्रागमिक है। कुन्दकुन्द त. सू. १.६.१० । प्रवचनसार (गा० २१, २२, ३०,४०) में प्रत्यक्ष और २. मतिश्रुतावधयो कार्यश्च, वही १-३१ । परोक्ष शब्दो का प्रयोग किया गया है। पर वहा इन ३. नैगमसंग्रह व्यवहार ऋजसूत्र शब्द समाभिरुढव- शब्दों का पदार्थ के विशेषण रूप में है। हां, इसी प्रथ भूता नया: ।' वही, १.३१ । मे पागे (गा० ५८ मे ) अवश्य परोक्ष और प्रत्यक्ष ४. तत्प्रमाणे, 'माद्ये परोक्षम्' प्रत्यक्षमन्यत् - वही-१, के लक्षण बतलाते हुए उन्हें ज्ञान का विशेषण बनाया १०, ११, १२। गया है। पर प्रमाण के भेद के रूप मे उनका प्रति५. तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् 'प्रत्यक्षमन्यत् -त. सू. पादन नही है। १, १८, १२। ७. लघीय, १-२.५ प्रमाण प. पृ. २८, वीर सेवा ६. मति श्रुत मादि पाँच सम्यग्ज्ञानो का भेद मागमिक मन्दिर ट्रस्ट, सकरण १६७७ । है। स्वभावज्ञान और विभावज्ञान के भेद से ज्ञानोप- ८. जनतकशास्त्र में अनुमान-विचार, पृ. ६६, वीर सेवा योग के दो भेदों का प्रा. कुन्दकुन्द का निरूपण मन्दिर ट्रस्ट, सस्करण १९६६ ।

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