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कुणालपुर के बड़े बाबा : भगवान प्राविनाय
११५ मध्यकाल तक प्रचलित रही है। तीर्घर ऋषभनाथ की उक्त यक्ष और यक्षी के शास्त्रीय मूल्यांकन से मूर्तियों का जटायुक्त रूप शास्त्रसम्मत भी है, जैसा कि निर्विवाद रूप से यह तथ्य प्रमाणित है कि बड़े बाबा की प्राचार्य जिनसेद ने भी कहा है :--
मूर्ति तीर्थङ्कर ऋषभनाथ की है।। (क) चिरतपस्यो यस्य जटा मूनि वस्तराम् ।
(४) लोक परम्परामो मे भी संस्कृति के मूल रूप के ध्यानाग्निदग्धकर्मेन्धना निर्मदबूमशिखाइव ॥ दर्शन सहज ही होते है। इस बात का प्रबल प्रमाण है इस
-ग्रादिपुराण, पर्व १, पद्य ६ मूर्ति का "बड़े बाबा" नाम से सम्बोधित होना। तीर्थ(ख) प्रनम्बजटा-भार-भ्राजिष्ण निष्ण रावभी। गे की परम्परा में जो 'बड़ा है, वृद्ध है, उसे ही तो" रूढप्रारोहशाग्वाम्रो यथा न्योनोधपादप. ।।
"बड़े बाबा" का सम्बोधन प्रदान किया जा सकता है, .हरिवश मण, १.२०४ अन्तिम तीर्थकर महावीर स्वामी के लिए "बडे बाबा"
सम्बोधन कैसा? कुण्डलपुर के बड़े बाबा के कंधों पर जटाये भी लहरा रही है। अत: निर्विवाद रूप से यह मूर्ति भगवान ऋषभ- उक्त प्रमाणो के प्रकाश में यह तय्य सहज ही स्वीकार नाथ की ही है, महावीर स्वामी की नही।
किया जाना चाहिए कि कुण्डलपुर के “वडे बाबा" की (२) श्री महावीर-मूर्ति के साथ में उनके यक्ष
भूति महावीर स्वामी की नहीं है, प्रत्युत तीर्थङ्कर ऋषभमातंग और यक्षी सिद्धायिका का प्रकन होता है, जब कि
नाथ की है। इस मूर्ति में ऐसा कोई अकन नही है।
यद्यपि भारत में यत्र-तत्र धनेक विशाल पद्मासन (३) बडे बाबा की मूर्ति के पादपीठ के नीचे सिंहा- मूर्तियां प्राप्त होती है, परन्तु कला को शाश्वत और सन में प्रादिनाथ के यक्ष गोमख और यक्षी चक्रेश्वरी का सार्वकालिक स्मरणीय प्रभाव तथा वीतरागता की जो सायूथ सुन्दर अकन है। यक्ष अपने दो हाथों में से एक मे अनुपम अनुभूति "बड़े बाबा" की इस मूर्ति से प्राप्त परशु और दूसरे में बिजौरा फल धारण किये है। उसका होती है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। ऐसी दिव्य मूति को शतशः मुख जैसा है जबकि चक्रेश्वरी यक्षी चतुर्भुजी है उसके ना ऊपर के दो हाथों में चक्र है, नीचे का दाया हाथ वरद प्रध्यक्ष-सस्कृत विभाग मुद्रा मे है तथा बाये हाथ में शंख है।
शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, दमोह, म०प्र० 000
श्रीकष्ण और तीर्थंकर नेमिनाथ श्री कृष्ण महाभारत काल में हुए थे और बाइसवें तीर्थकर श्री नेमिनाथ भी उसी समय और उसी वृष्णि या हरिवंश में हुए थे। वैदिक और श्रमण दोनों धाराएं एक साथ, एक प्रदेश और एक ही वंश से प्रवाहित हुई थीं। एक गीता के पायक थे, तो दूसरे सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूपी तीर्थ के उन्नायक थे। एक भक्ति और ज्ञानयुक्त निष्काम कर्मयोग के प्रणेता थे और दूसरे त्याग एवं वैराग्यमय प्राप्तधर्म के प्रचेता थे। दोनों ने जनमानस को प्रभावित किया था और दोनो ने लोक को नई चेतना की थी। हिंसामय यज्ञ-यागादि के अतिरिक्त भी कोई धर्म है, जो जीव का कल्याण कर सकता है, इसका पाठ पढ़ाया और एक नई बारा चलाई। दोनों धाराएँ उद्गम मे बहुत पास पी और आगे चलकर भी दोनो न परस्पर विचार ग्रहण किए थे। जैन परम्परा में व्रत उपवासादि का विशेष विधान है। इन्द्रियों को संयत रखने मे इनसे सहाय. मिलती है, अत: उनका दाना प्रकार का विधान किया गया जिसमें साधक अडिग रहकर अपनी साधना कर सके।