Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 186
________________ भारतवष का एक प्राचीन जैन विश्वविद्यालय १०१ इलोक परिमाण पूर्ण किया। इस महाग्रन्थ का सम्पादन हाल मे ही नासिक जिले के वजीरखेडा ग्राम से उनके ज्येष्ठ सघर्मा श्रीपाल ने किया था। ऐसा लगता है प्राप्त दो ताम्रशासनों से पता चलता है कि उपरोक्त कि तदनन्तर जिनसेन ने महापुराण की रचना प्रारंभ की कृष्ण द्वितीय के पौत्र एवं उत्तराधिकारी राष्ट्रकट नरेश किन्तु वह उसके प्राद्य १०३८० श्लोक ही रच पाये और इन्द्र तृतीय (६१४-६२२ ई०) ने अपने सिंहासनारोहण उनमें प्रथम तीर्थङ्कर प्रादिनाथ का चरित्र भी पूरा न के उपलक्ष्य मे, एक के द्वारा चन्दनापुर-पत्तन (चन्दनपुर कर पाये कि ८५० ई० के कुछ पूर्व ही उनका निधन या चन्द्रपुर) की जैन बसति को और दूसरे के द्वारा बडहो गया। राष्ट्रकट सम्राट् अमोघवर्ष प्रथम नपतग ने पत्तन (बडनगरपत्तन या वाटनगर) को जैन बसति (८१५-९७७ ई.) उन्हे अपना गुरु मानता था और को भूमि प्रादि का दान दिया था। ये दान द्रविडमंच के यदा-कदा राज्यकार्य से विराम लेकर उनके तपोवन में वीरगण की चीन् यान्वय शाखा या विर्णयान्वय शाखा के पाकर उनके सान्निध्य मे समय व्यतीत करता था। वह वर्धमान गुरु के शिष्य लोकभद्र को समर्पित किये गये थे। स्वयं भी अच्छा विद्वान और कवि था। स्वामी जिनमेनोमा लगता है कि इस काल में इस प्रदेश में सेन गण के के समकालीन विद्वानों में उनके गुरु एवं सधर्माओं के गुरुत्रों का प्रभाव और द्रविडसंघ का प्राबल्य हो जाने से अतिरिक्त हरिवंशपुराणकार जिनसेनसूरि, उपरोक्त स्वामि गृणभद्र या लोकमेन के वर्धमानगुरु नामक किसी शिष्य ने विद्यानन्द, अनन्तवीर्य द्वितीय, अर्ककोति, विजयकीति । द्रविडमध में अपना सम्बध जोड लिया हो और उसमें स्वयभपुत्र कवि त्रिभुवनस्वयभु, शिवकोटखाचार्य, वैधक. अपने परम्परा-गुरु वीरसेन के नाम पर वीरगण की शास्त्र कल्याणकारक के रचयिता उग्रादित्य, गणितसारसग्रह स्थापना करके इस संस्थान का अधिकार अपने हाथ में ले के कर्ता महावीराचार्य और वैयाकरणी शाकटायन पात्य- लिया हो। वजीरखेडा का प्राचीन नाम भी वीरखेडा या कीति उल्लेखनीय है। इनमे से कम से कम अन्तिम तनि वीरग्राम रहा बताया जाता है, वडनगरपत्तन तो वाटनगर को भी सम्राट अमोघवर्ष का प्रथय प्राप्त हुप्रा था। मे भिन्न ही प्रनीन होना है, चन्दपूर या चन्द्रपुर नाम स्वामी जिनसेन के प्रधान शिष्य प्राचार्य गुणभद्र थे, को कोई नवीन बस्ती पूर्वोक्त चन्द्रप्रभ चैत्यालय के ई. जिन्होंने गुरु के अधुरे छोडे प्रादिपुराण को संक्षेप मे पूरा गिर्द विकसित हो गई हो सकती है। किया तथा उत्तरपूराण के रूप मे अन्य २३ तीर्थकरो यों इस महान् धर्म केन्द्र की प्रसिद्धि, संभवतया उसके का चरित्र निबद्ध किया। उन्होने प्रात्मानुशासन प्रोर देवायतनों प्रादि तथा कतिपय सस्थानों को विद्यमानता जिनदत्तचरित्र की भी रचना की। कहा जाता है कि भी, कम से कम अगले सौ-डेढ सौ वर्ष पर्यन्त बनी रही। सम्राट प्रमोघवर्ष ने अपने युवराज कृष्ण द्वितीय का गुरु सन् १०४३ ई० (वि० स० ११००) में धारानगरी के उन्हें नियुक्त किया था। गुणभद्राचार्य का निधन कृष्ण प्रसिद्ध महाराज भोज (१००६-१०५० ई.) के समय में द्वितीय के राज्यकाल (८७८-६१४ ई०) के प्रारम्भ हो, अपना अपभ्रंश सुदर्शनचरित पूर्ण करने वाले प्राचार्य नयलगभग ८५०ई० में हो गया लगता है। उनके समय तक नंदि ने अपने सकल विधि-विधान काव्य में एक स्थल इस परम्परा के गूरुषो का ही वाटग्राम के केन्द्र से सीवा पर लिखा है कि "उत्तम एवं प्रसिद्ध वराड देश के अन्तर्गत एवं प्रधान सम्बन्ध रहा और वह पूर्ववत् फलता-फूलता -कीति लक्ष्मी सरस्वती (के सयोग) से मनोहर वाटरहा, किन्तु गुणभद्र के उपरान्त उसकी स्थिति गोण होती ग्राम के महान महल शिखर (उत्तुग भवन) में जहाँ गई। गुणभद्र के प्रधान शिष्य लोकसन ने अमोघवर्ष के जिनेन्द्र चन्द्रप्रभु विराजते थे, वीरसेन-जिनसेन देवो ने जैन सेनापति बकेयरस के पुत्र लोकादित्य के प्रश्रय में धवल, जयधवल पोर महाबन्ध नाम के तीन शिवपथा उसकी राजधानी बंकापुर को अपना केन्द्र बना लिया (मोक्षमार्गी) सिद्धान्त ग्रन्थों की रचना भव्यजनो को प्रतीत होता है, जहाँ उसने ८९ ई. मे गुरु द्वारा रचित सूखदायी की थी। वही सिद्धि रमणी के हार पुडरीक मोर उत्तरपुराण का ग्रन्थविमोचन समारोह किया था। (शेष पृ० ११० पर)

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