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भारतवर्ष का एक प्राचीन जन विश्वविद्यालय
थे। किन्तु जो विशाल ज्ञानपीठ होते थे उनका नियन्त्रण तया संस्थान के कुलपति का पावास स्थल था। एवं संचालन दिग्गज निर्ग्रन्थाचार्य ही करते थे और वहाँ बाटनगर के इस ज्ञानपीठ की स्थापना का श्रेय संभवअपने गुरु-बन्धूनों, शिष्यों-प्रणिष्यो के बृहत् परिवार के तया पंचस्तुप निकाय (जो कालान्तर मे सेनसंघ के नाम साथ ज्ञानाराधना करते थे। अपनी चर्चा के नियमानुसार से प्रसिद्ध हमा) के दिगम्बराचार्यों को ही है । ईस्वी सन् ये निष्परिगही तपस्वी दिगम्बर मुनिजन समय-समय पर के प्रारम्भ के अासपास हस्तिनापूर, मथग प्रथवा किसी यत्र-तत्र पल्पाधिक बिहार भी करते रहते थे, किन्तु अन्य स्थान के प्राचीन पांच जैन स्तूपों से सबंधित होने के स्थायी निवास उनका प्रायः वही स्थान होता था। इन कारण मनियो को यह जापा पञ्चस्तुपान्दय कहलाई। विद्यापीठों मे साहित्य साधना के अतिरिक्त तात्विक, ५वी शती ई० मे इसी स्तपान्वय के एक प्रसिद्ध प्राचार्य दार्शनिक एवं धार्मिक ही नही, लौकिक विषयो, यहाँ तक गृहनन्दि ने वाराणसी से बंमाल देशस्थ पहाड़पुर की ओर कि राजनीति का भी शिक्षण दिया जाता था। साधुनी विहार किया था जहाँ उनके शिष्य-प्रशिष्यो ने बटगोहाली के अतिरिक्त विशेष ज्ञान के प्रर्थी गहस्थ छात्र, जिनमे
का प्रसिद्ध संस्थान स्थापित किया था। ६ठी शती मे इसी बहुधा राजपुरुष भी होते थे, इस शिक्षण का लाभ उठाते
प्रन्वय के एक प्राचार्य वृपभनन्दि ने दक्षिणापथ मे विहार थे । इन केन्द्रो मे निःशुल्क प्रावास एवं भोजन और सावं
किया। इन्ही वषभनग्दि की शिष्य परम्पग मे ७वी शती जनिक चिकित्मा को भी बहुधा व्यवस्था रहती थी।
के उत्तरार्ध मे संभवत या धीसेन नाम के एक भाचार्य राष्ट्र कट काल और साम्राज्य के प्रमुख ज्ञानीठो मे हुए पोर संभवतया इन श्रीसेन के शिष्य चन्द्रसेनाचार्य थे मभवतया सर्वमहान वाटग्राम का ज्ञानवेन्द्र था। वराड जिन्होने ८वीं शती ई. के प्रथम पाद के लगभग राष्ट्रकूटो प्रदेश (बरार) मे तत्कालीन नासिक देश (प्रान्त) के के सम्भावित उत्कर्ष को लक्ष्य करके वाटनगर की बस्ती वाटनगर नामक विषय (जिले) का मुख्य स्थान यह के बाहर स्थित चदोर पर्वतमाला की इन चाम्भार लेणो वाटग्राम, वाटग्रामपुर या वाटनगर था जिसकी पहचान मे उपरोक्त ज्ञानपीठ की स्थापना की थी। सम्पूर्ण वर्तमान महाराष्ट्र राज्य के नासिक जिले के डिंडोरी नासिक्य क्षेत्र तीर्थर चन्द्रप्रभु से सबधित तीर्थक्षेत्र तालुके में स्थित 'वानी' नामक ग्राम से की गई है। माना जाता था और इस स्थान मे तो स्वय धवलवर्ण नासिक नगर से पांच मील उत्तर की पोर सतमाला चन्द्रप्रभु का तथाकथित प्राणतेन्द्र निर्मित धवल भवन अपरनाम चन्दोर नाम की पहाड़ीमाला है जिसको एक विद्यमान था। गजपन्था और मागी-तुंगी के प्रसिद्ध प्राचीन पहाडी पर चाम्भार लेण नाम से प्रसिद्ध एक प्राचीन जैन तीर्थ भी निकट थे, एलाउर या ऐलपुर (एलोरा) उत्खनित जैन गुफा श्रेणी है। यह अनुमान किया जाता का शव सस्थान और कन्हेरी का बौद्ध सस्थान भी दूर है कि प्राचीनकाल में ये गुफाये जैन मुनियो के निवास नही। राष्ट्रकटो की प्रधान संनिक छावनी भी कुछ हट के उपयोग मे पाती थी। इस पहाड़ी के उस पार कर उसी प्रदेश के मयूरखडी नामक दुर्ग मे थी और ही वानी नाम का गांव बसा हुया है जहां कि उक्त काल तत्कालीन राजधानी मूलुभजन (मारभंज) भी नातिदूर में उपरोक्त वाटनगर बसा हुमा था। बहुसंख्यक गुफायो थी। इस प्रकार, यह स्थान निर्जन पौर प्राकृतिक भी था, के इस सिलसिले को देखकर यह सहज ही अनुमान होता प्राचीन पवित्र परम्पराओं से युक्त था, राजधानी प्रादि है कि यहां किसी समय एक महान जैन संस्थान रहा के झमेले से दूर भी, किन्तु शान्ति और सुरक्षा की दृष्टि होगा। वस्तुतः राष्ट्रकूट युग में रहा ही था। उस समय से उसके प्रभावक्षेत्र में ही था। अच्छी बस्ती के नकटय इस संस्थान के केन्द्रीय भाग में अष्टम तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभु से प्राप्त सुविधानों का भी लाभ था और उसके शोरगुल का एक मनोरम चैत्यालय भी स्थित था जिसके सम्बन्ध से असम्पृक्त भी रह सकता था। एक महत्वपूर्ण ज्ञान केन्द्र मे उस काल में भी यह किंववन्ती प्रचलित थी कि वह के लिए यह प्रादर्श स्थिति थी। चन्द्र सनाचार्य के पश्चात माणतेन्द्र द्वारा निर्मापित है। यह पुनीत चैत्य ही संभव- उनके प्रधान शिष्य ग्रायनन्दि ने सस्थान को विकसित