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१०६, वर्ष ३१, कि० ३-४
अनेकान्त
परत्व बुद्धि तो रखता है, किन्तु 'स्व' में अन्य निमित्त से रात्मा है, अशुद्ध निश्चय नय स्थित प्रात्मा अंतरात्मा है। होने वाले परिणामों में स्वत्व बद्धि रखता है, परत्व बुद्धि अंतरात्मा को परमात्मा बनने हेतु दर्शन, ज्ञान व चारित्र नहीं रखता। शुद्ध निश्चय नय 'स्व' में होने वाले उम्ही इन भेदों को भी भुलाना पड़ता है और अंत में दृष्टा. परिणामों को अपना समझता है जो 'पर' के निमित्त से न दृष्य का भेद भी। इस प्रकार, स्वत्व का केन्द्रबिन्द हए हों।" इसी प्रकार, शरीर को प्रात्मा कहना व्यवहार सिमटता हुमा शुद्ध चित् रूप रह जाता है। नय है, गात्मा में कर्म पुद्गल निमित्त से होने वाले रागादि
इसी तरह प्राचार्य कुन्दकुन्द ने यह दृष्टि भी दी कि भावों को प्रात्मा का कहना अशुद्ध निश्चय नय है, और
कोई पर-वस्तु किसी मे परिणमन नही करा सकती, प्रत्येक भीमा को प्रखंड. शद्ध, चैतन्य रूप समझना परम शुद्ध वस्त स्वपरिणमन में स्वतन्त्र है।" प्रत: मास्मा स्फटिकवत निश्चय नय है।
निलेप व शुद्ध है।" इसलिए प्रात्मा के बन्ध व मोक्ष भी इसी प्रकार, मारमा पूण्य-पापादि कर्मों का कर्ता भाषचारिक है, वास्तविक नही । इस भावना के दोन व्यवहार नय से कहा जाएगा." निश्चय नय से तो प्रकर्ता से प्रात्मा में परमात्म स्वरूप प्रावित होता। ही है । प्रात्मा स्वरागादि भावो का कर्ता प्रशुद्ध निश्चय पुनः स्वरूपच्युत नही होता। नय से है, शुद्ध निश्चय नय से नही।" चैतन्य भाव का समयसार की जिन गाथानों को समझना या उसका कर्ता शुद्ध निश्चयनय से कहा जायगा।" निश्चयनय से सही अर्थ निश्चित करना तब तक और कठिन हो जाता देखें तो प्रात्मा के बन्ध व मोक्ष, पुण्य व पाप आदि है जब तक हम यह न समझ लें कि कौन-सी गापा किस प्रसंगत ठहर जाते है।" व्यवहारनय स्थित प्रात्मा 'पर नय को दृष्टि मे रख कर कही गई है; अन्यथा निश्चय समय' है । निश्चयनयस्थित प्रात्मा 'स्वसमय' है। व्यव- नय मे बाह्य क्रियाकाण्डो का तथा धार्मिक माचरणो की नय निचली कोटि मे स्थित व्यक्ति के जिए है, साधना निरर्थकता सिद्ध करने वाले निश्चय नय परक वाक्यों का की उच्च स्थिति मे तो साधक को निश्चय नय का प्रव- दुरुपयोग होने लगेगा पोर फलस्वरूप तीर्थ-विच्छेद ही हो लम्बन कर ही मुक्ति प्राप्त होती है।" निश्चय नय जाएगा। इस तरह के और भी अनेक प्रसंग हैं जो ग्रन्थ. स्थित प्रात्मा के लिए बाह्य क्रियाकाण्ड सभी व्यर्थ हो कर्ता की दृष्टि न समझने के कारण म्रान्ति उत्पन्न कर जाते है।
सकते है। उक्त नय या दृष्टिकोणों से प्राचार्य कुन्दकुन्द ने
अध्यक्ष जैन दर्शन विभाग, प्रात्मा के क्रमिक उत्थान को स्थिति को स्पष्ट किया है ।
लाल बहादुर शास्त्री केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, इन नयो के द्वारा प्रात्मा का प्रकर्तृत्व व अभोक्तृत्व, शुद्ध
(शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार) चित् स्वरूप तथा प्रखण्ड भाव की भावना साधक के मन
१/६, शान्ति निकेतन, मोती बाग, में दृढ हो जाती है। व्यवहारनय मे स्थित प्रात्मा बहि
नई दिल्ली-११००२१
३७. यद्यप्यशुद्धनिश्चयनयेन चेतनानि, तथापि शुद्धनिश्चय- ३६. समय० ७५, ६३ ।
नयेन नित्य सर्वकालमचेतनानि । अशुद्धनिश्चयस्तु ४० समय० १६६। वस्तुतो यद्यपि द्रव्य कर्मापेक्षया प्राभ्यन्तररागादयश्चे- ४१. समय० १२, पुरुषार्थसिद्धयुपाय-६। तना इति मत्वा निश्चय सज्ञां लभते, तथापि शुद्ध- ४२. समय० १२। निश्चयनयापेक्षया व्यवहार एव (द्रव्यसंग्रह टीका- ४३. सकाधिशतक-८४ । जयसेनकृत, गाथा-३)।
४४. द्र० समय० ३७२ । ३८. समय० १०१।
४५. समय० २७८.२७६ ।