Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 193
________________ १०८ कि. ३.४, वर्ष ३१ अनेकाग्व के तले दबाता है या कि जेब में रखता है। नदी और वाले लोगो का पुण्य और परलोक उसी पाप पर सुरक्षित कुएं में प्रादमी दूब कर मर जाता है। क्या यह पानी की होता है। यह कैसी विडम्बना है कि तन को तोड़कर, शैतानियत है ? पानी न शंतान है, न भगवान् । पानी रात-दिन मेहनत करके जो लोग साधु-सन्यासियों का भरणकिसी को मार नहीं डालता, मार नहीं सकता। प्रादमी पोषण करते है, अपना परलोक सुधारते है, वे तो हुए पापी अपनी ही कमजोरी, असमर्थता या प्रज्ञान से डूबता-मरता और बैठे बैठे बिना श्रम के पेट भरने वाले हुए धर्मात्मा ! है। समझ बूझकर पानी से काम लिया जाय तो सब ठीक क्या भगवान महावीर ऐसा धोखे में डालने वा है। वह 'जीवन' ही है। पानी न हो तो प्राण तक जा वंचक, दीन बनाने वाला 'अपरिग्रह' प्रतिप्ठित करना सकते है। यही बात पैसे की है। पैसा सिर्फ पंसा है। उसे चाहते थे? यह ठीक है कि महावीर ने प्रत्यक्ष रूप से हम सिर्फ पैसा ही समझे और समझ-बूझकर उसका उप- श्रम की प्रतिष्ठा का उद्घोष नही किया, न उत्पादक श्रम योग करें, तो वह बड़े काम का भी है। पर जोर दिया। सिद्धान्तवादी लोग यह भी कह सकते है हमारी मश्किल यह है कि पैसे को या तो हम शंतान कि कर्म करना मात्र पापपूर्ण है, मावद्य प्राचार है, धारभ समझते है या फिर भगवान् समझते है। दोनो स्थितियो मे या कि क्रियामात्र में हिमा है और निर्ग्रन्थ महावीर मे पैसे का महत्त्व प्रात्यन्तिक बढ़ जाता है। प्रादमी अन- सायद्य क्रिया का समर्थन नहीं कर सकते थे। फिर भी शान से भी मर सकता है और अधिक खाने स भा मरता महावीर जैमा महापुरुष थम की महत्ता से प्राख नही मद है। बाह्य पदार्थ मे मात्मा से अधिक शक्ति कदापि नहा सकता था। श्रमण शब्द में ही श्रम और संयम की हो सकती, किन्तु शारीरिकता के स्तर से या कि मानसिक प्रतिष्ठा है। स्तर से अधिक मनुष्य की गति नहीं है, इसीलिए मनुष्य प्रभाव मे से अपरिग्रह नही निपजता। जिसमे सग्रह अपने बचाव मे बाह्य या स्थूल पदार्थों पर मारा दोप की शक्ति न हो, वह त्याग नही कर सकता। जितना मढ़ देता है। पराक्रम स ग्रह के लिए आवश्यक है , उससे कम जोर समाज लक्ष्मी की पूजा करता है। 'लक्ष्मी' शब्द के त्याग में नहीं लगता। जिसके पास है ही नही या जो प्रर्थ की खीच-तान करना व्यर्थ है। असल में वह धन की प्राप्त नही कर सकता, वह तो अपनी प्राकाक्षामो मे ही पजाते। लक्ष्मी को 'भक्ति' कहना वैसा ही है जैसे अटक जाता है । इसलिए निर्धनता अपरिग्रह नही है । जो साहित्य की सरसता के लिए मक्ति को 'रमा' कहना। है और काबू में है. उसी को व्यर्थ बना छोड़ना अपरिग्रह एक प्रोर तो हम मोक्ष को रमा-विहीन ही मानते है और हो सकता है । जो अपरिग्रह की ओर बढता है, वह धम दुसरी पोर स्वय मक्ति भी हमारे निकट 'रमा' की उपमा से बचाव नही चाहेगा, बल्कि दुगुना ति गूना भी श्रम में प्रस्तुत हो जाती है। लक्ष्मी का सीधा सादा प्रौर करेगा। अपरिग्रह अगीकार करने वाले की सामाजिक व्यावहारिक अर्थ 'अर्थ' ही है और समाज ऐसा करके चेतना तीव्र हो उठती है और उसमें एक ऐसी व्यापक व्यथा गलती कहां करता है? अर्थ-प्राप्ति के लिए जो परिश्रम, होती है कि वह सबके प्रति सहज उपलब्ध रहता है। प्रयास, पराक्रम करना पड़ता है, उसका कोई हिसाब है ? महावीर ने अपने को समाज में व्याप्त कर दिया समाज को परिग्रह के लिए दोष देना अपने को धोखे में था। उनका व्यक्तित्व समाज को अर्पित हो गया था। डालना है। पूरा का पूरा समाज कभी भी अपरिग्रही व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के समर्थक कह सकते है कि महावीर ने नही बन सकेगा, बल्कि जो लोग परिग्रह की सीमा-मर्यादा समाज की परवाह न करके, परम्परामो की परवाह न बांध लेते है, वह भी दोषपूर्ण हो तो पाश्चर्य नही। करते हुए व्यक्ति के स्वतन्त्र विकास का मार्ग खोना था क्या यह बात छिपी है कि हजारों साधु-सन्यासियो यहाँ तक कि विभुसत्ता से भी इनकार किया था। व्यक्ति और मनियो के प्रध्यात्म का सिचन भी भौतिक पैसे से ही का कम ही सब कुछ है । हमें यहां दार्शनिक या सैद्धातिक होता रहता है ? धन को पाप का घर कहने और समझने झमेले में नहीं पड़ना है। इतना अवश्य कहा जा सकता

Loading...

Page Navigation
1 ... 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223