Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 197
________________ १२२, वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त कि "मैंने इसे युगानुरूप रचा है।" युगानुरूप का अर्थ पूजा- नित्यनियम पूजा मे पांचों ही उपचार पाये जाते हैं विधि में इस तरह की नयी रीतियां चलाना ही जान किन्तु नित्यनियम पूजा किसी एक की कृति नहीं है। वह पड़ता है। संग्रह ग्रन्थ है मौर उस में कितने ही पाठ अर्वाचीन है। प्राशाधर के बाद इन्द्रनंदि हए, जिन्होंने इस विषय उदाहरण तौर पर "जयरिसह रिसीवर णमियपाय" यह में और भी मागे बढ़कर महतादिकों की पूजा विधि में वे देवकी जयमाला का पाठ कवि पुष्पदन्त कृत अपभ्रश ही पंचोपचार प्रहण कर लिए जो मल्लिषेण ने मंत्राराधन यशोधर चरित्र का है। उसमे शुरू मे ही यह मंगलाचरण में लिखे है। इन्होने शासनदेवो की ही तरह प्रतादिकों के तौर पर लिखा हुआ हैका विसर्जन भी लिख दिया है। यही नही महंतादि का "वृषमोजित नामा च संभवाश्चाभिनन्दनः।" पूजा में द्रव्य अर्पण करते हए "इदं पुष्पांजलि प्रार्चनं पाठ अय्यपार्य कृत अभिषेक पाठ का है जो अभिषेक गृहणीध्वं गहीव" तक लिख दिया है। (देखो अभिषेक पाठ संग्रह के पृष्ठ ३१६ पर छपा है। ये अय्यपार्य विक्रम पाठ संग्रह, पृष्ठ ३४४)। इन्ही को आधार मानकर एकसधि सं० १३७६ मे हुए है। ने भी प्रर्हतादिको को पूजा पचोपचार से करना बताते ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि शास्त्रोक्तं न कृतं मया ।। हए लिखा है कि- "मैंने यह वर्णन इद्रनन्दि के अनुसार विसर्जन का यह पहिला पद्य आशाधर प्रतिष्ठापाठ से किया है" यथा लिया है जो उसके पत्र १२३ पर पाया जाता है। एवं पंचोपचारोपपन्न देवार्चनाक्रमम् । 'अाह्वान नव जानामि' और 'मन्त्रहीनं क्रियाहीनं' यः सदा विदधात्येव म: स्यान्मुक्तिश्रियः पतिः ।। आदि विसर्जन के दो पद्य सूरत से प्रकाशित भैरव पद्मावती इतीन्द्रनंदिमुनीन्द्रजिनदेवार्चनाक्रम । कल्प के साथ मद्रित हुए पद्मावती स्तोत्र में कुछ पाठभेद - परिच्छेद हवा “एकसंधिजिनसंहिता" । के साथ पाये जाते है, वही से इसमें लिए गये है। वे पद्य ये ही श्लोक कुछ पाठ मेद के साथ 'पूजासार' ग्रन्थ इस प्रकार हैमे पाये जाते है । यथा - प्राह्वाननं न जानामि न जानामि विसर्जनम् । "य: सदा विदधात्येना सः स्यानमक्तिश्रियः पतिः । पूजामी न जानामि क्षमस्व परमेश्वरि ।। इतीद्रनंदियोगीन्द्र प्रणीनं देवपूजनम् ।।" प्राज्ञाहीन क्रियाहीन मन्त्रहीन च यत्कृतम् । एकसन्धि का पंचोपचारी पूजा के लिए इन्द्रनंदि का तत्सर्व क्षम्यता देवि प्रसीद परमेश्वरि ।। प्रमाण पेश करना माफ बतलाता है कि उनके समय में अलावा इसके पचोपचार में प्रयुक्त हुए "संवौषट्" इस विधि का प्रतिपादक सिवाय इन्द्रनन्दि के और कोई "वषट्" प्रादि शब्दों पर अब हम विचार करते है तो पूजा ग्रन्थ मौजूद नही था। यहाँ तक कि इन्द्रनंदि के साथ स्पष्टतया यह प्रकरण मन्त्र विषयक है। यही श्लोक उन्होंने मादि शब्द भी नही लगाया है, यह खास तौर वैष्णवधर्म के विसर्जन पाठ मे शब्दशः है। वीतराग भगसे ध्यान देने योग्य है। वान की पूजा जिस ध्येय को लेकर की जाती है उसमें यशोन दिकृत संस्कृत पचपरमेष्ठी पूजा में भी प्राशाधर इनका क्या काम ? की तरह ही चार उपचार मिलते है, विसर्जन उसमें नहीं वर्तमान मे, पूजाविधि का जो रूप प्रचलित है वह है। किन्तु यशोनन्दि का समय प्रज्ञात है कि वे प्राशाधर कितना प्राचीन है ? आशा है खोजी विद्वान् इसका अन्वेके पूर्ववर्ती है या उत्तरवर्ती ? षण करेंगे, इसी अभिप्राय से यह लेख लिखा गया है। 000

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