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अपरिग्रह या श्रम-निष्ठा
0 श्री नमनालाल जैन
तीर्थकर महावीर ने 'अपरिग्रह' को धर्म कहा है और लगा होगा। उनका पराक्रम अद्भुत था। उनके जैसा वे स्वय भी मसग थे-इतने कि स्थूल दृष्टि से भी निर्ग्रन्थ पुरुष सुस्त, काहिल या निराशा से ग्रस्त नहीं हो उनका तन शून्य बन गया था। तन को ढोने को विवशता सकता। जिस बात का बीड़ा उन्होंने उठाया, उसके लिए थी, मन्यया भावक्षेत्र मे तो तन भी भार ही था, पराया ऐसे ही पराक्रम को प्रावश्यकता थी कि व्यक्ति का खानाथा। मपरिग्रही को समाज में एक प्रतिष्ठा भी है। पीना, सोना-जागना, पहनना-प्रोढ़ना वही बन जाय । 'परिग्रह' 'अपरिग्रह' के चरणो मे शरण पाने को तरस अपरिग्रह की बात करते समय ध्यान बरबस से उठता है। अपरिग्रह की ऐसी प्रतिष्ठा को निहारकर पर भटकता है। पंसे में ऐसी क्या बात है कि उसको कभी-कभी ईया भी होने लगती है। अनेक बार यह छोड़कर माज कोई विचार ही नहीं टिकता। पंमा केन्द्र प्रतिष्ठा ही मीमा लाघकर परिग्रह बन जाती है। में हो तो बाकी सब ठीक है, अन्यथा सब बेकार। जन्म
भगवान महावीर अपरिग्रह को अन्तिम छोर तक से लेकर मत्यू के बाद की क्रिया तक पैसा प्रधान हो बैठा खीच ले गये । निर्वस्त्र होकर उन्होने लज्जा की गांठ भी है। अर्थ को व्यर्थ सिद्ध करने की शक्ति किसम है, नही तोड दी-निर्ग्रन्थ बन गये। तन पर तो गांठ रखी ही कहा जा सकता। महावीर स्वय असग थे, निग्रंथ थे, नही, मन और वाणी में भी कोई गांठ नही थी। भीतर निर्वस्त्र थे और समाज माध्यात्मिक समता का मूल्य और बाहर, दोनो पोर से वे कोरे या खालिस हो रहे। प्रतिष्ठित करने के लिए कटिबद्ध थे, फिर भी क्या वे ऐसी साधना नितान्त कठिन है और जिसके जीवन में यह समाज में से परिग्रह को मिटा सके ? उनकी देशना के सहज बन जाती है उसे नमन ही किया जा सकता है । वे रूप में उपलब्ध ग्रन्थों में संकड़ी कहानिया एवं प्राख्यान कही भी टिक जाते और प्राणी मात्र का कल्याण चाहते थे। से मिल सकते है, जिनमे धन की प्रचुरता का दर्शन कड़वे मीठे बोल भी उनके अन्तस को बेध नहीं पाते थे। होता है। धन के त्याग का वर्णन तो है, पर उसी से यह जो परिस्थिति उनके सामने प्राती, उसकी गहराई में भी ध्वनित होता है कि धन का महत्व भी कम नहीं है। पठते और कुछ ऐसा समाधान खोज निकालते कि समस्या घन-सम्पत्ति के त्याग का अहसास अगर बना रहता है या में उलझा व्यक्ति काण की राह पा जाता। उसमें उनका पाठक के मन पर कथा यह छाप पड़ती है कि अमुक ने प्राग्रह रंच मात्र न होता।
वैभव का त्याग किया है, तो यह चीज वैभव की प्रचुरता भागम-ग्रन्थों या पुराण-ग्रन्थों से पता नही चलता का प्राकर्षण ही निर्माण करती है। कि भगवान महावीर ने शरीर-श्रम के नाम पर कोई काम
नाम पर कोई काम हमारे ऋषि मुनि कह सकते है कि पंसा शैतान है. किया था। शरीर श्रम की जो परिभाषा प्राज प्रचलित वह आदमी को गिराता है और उमसे विवेक नष्ट हो है, उस अर्थ में तो नहीं ही किया था। वे राजपुत्र थे जाता है। यह बात पैसे का महत्त्व मानकर ही कही जा और उनके सामने मूलभूत समस्या शरीर-श्रम को नहीं सकती है। क्या सचमुच पैसे में इतनी ताकत है कि मनुष्य थी। वे प्राध्यात्मिक दृष्टि से समाज मे समता स्थापित पर उसका काब रहे ? पैसे की कीमत है और वह भी करना चाहते थे। अध्यात्म-दृष्टि के परिपुष्ट हुए बिना राज्य अथवा हमारे द्वारा प्रांकी गई है। अब यह व्यक्ति सामाजिक विषमता का उन्मूलन करना उन्हे असम्भव पर निर्भर है कि वह पैसे को सिर पर चढ़ाना है या पर।