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भारतवर्ष का एक प्राचीन जैन विश्वविद्यालय
डा० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ
ईस्वी सन् की ८वीं शताब्दी मे भारतवर्ष ने एक प्रभूतवर्ष ७६३-८१४ ई.) ने अपनी सफल पाक्रामक साथ तीन साम्राज्यो का उदय देखा-दक्षिणापथ में राष्ट्र नीति के फलस्वरूप दन्तिदुर्ग के उक्त राष्ट्रकट राज्य की कूट, बिहार-बंगाल मे पाल और उत्तरापथ के मध्यप्रदेश एक भारी साम्राज्य के रूप मे परिणत कर दिया, जिसका (गंगा के दोग्राबे) मे गुर्जर प्रतिहार । लगभग दो कि विस्तार सुदूर दक्षिण मे केरल और कांची पर्यन्त था शताब्दी पर्यन्त इन तीनों ही साम्राज्यों मे सम्पूर्ण भारत- और उत्तर में मालवा पर्यन्त, उत्तर-पश्चिम दिशा में वर्ष के एकच्छत्र शासन के लिए परस्पर प्रबल प्रतिद्वन्द्विता प्रायः सम्पूर्ण गुजरात और राजस्थान के कुछ भाग उसके एव होट रही, किन्तु उक्त उद्देश्य में तीनो में से एक भी अग बन गये ये पोर पूर्व में वेंगि के पूर्वी चालूवा उसके सफल न हो सका। तीनो की ही गाथ-साथ स्वतन्त्र सत्ता करद सामन बन गये थे। तदुपरान्त अधिक डेढ गौ वर्ष बनी रही। इतना अवश्य है कि उन तीनों मे विस्तार, पयन्त यह विशाल राष्ट्र कूट साम्राज्य अपनी शक्ति, शक्ति एव ममृद्धि की दृष्टि से राष्ट्रकूट साम्राज्य ही वैभव एव ममृद्धि की चरमावस्था का उपयोग करता सभवतया मर्वोपरि रहा । राष्ट्रकटो का सम्बन्ध दक्षिणापथ हुप्रा प्राय' अक्षुण्ण बना रहा । १०वी शती के तृतीय पाद के अशोककालीन प्राचीन रट्रिकों के साथ जोड़ा जाता है. के अन्त के अगभग वह अकस्मात् धराशायी हो गया। और यह अनुमान किया जाता है कि ६ठी. ७वी शती मे अढ़ाई मी वर्ष का यह काल दक्षिणापथ के इतिहास इनका मूल निवास स्थान वराड या वर)ट (माधुनिक म राष्ट्रकट-युग के नाम से प्रसिद्ध हुमा। अपने समय के बरार और प्राचीन विदर्भ) देश में स्थित लातूर नामक इस गर्वाधिक विस्तृन, वैभवशाली एवं भक्ति सम्पन्न स्थान था, जहाँ उस काल में वे पहले बनवासी के कदम्बो भारतीय साम्राज्य के अधीश्वर इन गष्ट्रकूट नरेशो की के और तदनन्तः वातापी के प्राचीन पश्चिमीय चालुक्य कीर्तिगाथा प्राब मौसागरो के द्वारा सुदूर मध्य एशिनरेशो के प्रति सामान्य करद मामलो के रूप में निवास याई देशो तक पहुंची थी जहा व 'बलहग' (वल्लभराय) करते थे । ७वी शती के उत्तरार्ध में उन्होन शक्ति सवर्द्धन के नाम से प्रगिद्ध हए । राष्ट्रकूटो की इस महती सफलता प्रारम्भ किया और ८वीं शती के द्वितीय पाद के प्रारम्भ का धंग जहां अनकल परिस्थितियो, उनकी स्वय की के लगभग राष्ट्र कट राजा दन्तिदुर्ग एक शक्तिशाली राज्य महत्वाकाक्षा, शौर्य और राजनीतिक पटुता को है वहाँ की नीव डालने में सफल हप्रा और आगामी २५-३० ।
उसका एक प्रमुख कारण उनकी मामान्य नीति भी थी। वर्षों में वह प्रायः सम्पूर्ण दणिक्षापथ का स्वामी बन बैठा। वे समभ्य और समस्कृत भी थे, साहित्य और कला के अवश्य ही उसने अपने पूर्व प्रभुषों, वातापी के चालुक्य प्रश्रयदाता थे और मवमे बड़ी बात यह कि वे पूर्णतया सम्राटो, की उत्तरोत्तर होने वाली अवनति का पूरा लाभ सर्वधर्म महिष्ण । एलोरा के प्रख्यात गुहामन्दिगे का उठाया, अपितु उनके प्रभुत्व का अन्त करने में सक्रिय उत्खनन कार्य कृष्ण प्रथम के समय में प्रारम्भ हुमा, योग दिया और शनैः शनैः उनके सम्पूर्ण साम्राज्य को जिममे शैव, जैन और बौद्ध तीनो ही सम्प्रदायो ने योग हस्तगत कर लिया। तत्पश्चात् उसके उत्तराधिकारियो, दिया तया उसावनित गुहाम्बापत्य के प्रतिम उदाहरण कृष्ण प्रथम प्रकालवर्ष (७५६-७७२ ई.), गोविन्द प्रस्तुत किये । महानगरी मान्यखेट की नीव गोविन्द तृतीय
७७२-७७६ ई०), प्रव घारावर्ष निरूपम श्री ने ही डाल दी थी और उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी वल्लभ (७७६-७६३ ई०) और गोविन्द तृतीय जगत्तुङ्ग सम्राट अमोघवर्ष प्रथम नपतुग सर्ववम (८१५-८७७ई०)