Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 180
________________ जिनेन्द्र प्रतिमा का स्वरूप तथा उसका महत्व सदोष प्रतिमा को पूजना प्रशुभ माना जाता है, क्यों है इसलिए प्रायुधरहित होने पर भी अत्यन्त निर्भय स्वकि उसमे पूजा करने वाले का अथवा प्रतिमा के स्वामी रूप है तथा नाना प्रकार की क्षुत्पिपासादि वेदनानो का का नाश, अंगो का कृश हो जाना अथवा धन का क्षय विनाश हो जाने से आहार न करते हुए भी तृप्तिमान है। प्रादि फल प्राप्त होते है। अंगहीन प्रतिमा क्षय व दुख निःसन्देह ये जिन प्रतिमाये व्यक्ति को सुप्तावल्या को देने वाली है। नेत्रहीन प्रतिमा नेत्रध्वंस करने वाली से जागत अवस्था की पोर ले जाती है। अचेतन से तथा मुखहीन प्रतिमा अशुभ करने वाली है। हृदय से चेतन की दिशा में व्यक्ति को झकाती है। कुश प्रतिमा महोदर रोग या हृदय रोग करती है। प्रस यह अपने में सत्य है कि तीर्थङ्कर के मनन्त ज्ञान, या अंगहीन प्रतिमा पुत्र को तथा शुष्क जंघा वाली प्रतिमा अनन्त दर्शन, सम्यग्दर्शन, वीतरागतादिक गुण प्रहप्रतिमा राजा को मारती है। पाद रहित प्रतिमा प्रजा का तथा और सिद्ध प्रतिमा मे नही है, वग्न उन गुणों का स्मरण कटिहीन प्रतिमा वाहन का नाश करती है। होने मे ये कारण अवश्य होते है, क्योंकि अहंत पोर सिद्धों उपयंडित सब बातो को ध्यान में रखकर जिनेन्द्र का उन प्रतिमानो में मादृश्य है। यह गुण स्मरण, अनुभगवान की प्रतिमाये सदैव दोषहीन बनायी जाती है, वे राग स्वरूप होने में ज्ञान और श्रद्धान को उत्पन्न करता है निर्दोष होती है। पोर इससे नवीन कर्मों की महानिर्जरा होती है, अर्थात प्रा: जब यह जाना और माना जाता है कि प्रात्मा । नवीन कर्मों का झड़ना होता है। ही पूज्य हे ता फिर जिनेन्द्र मूर्ति को क्या आवश्यकता प्रतः पाक्षिक श्रावक को अपनी श्रद्धा और सामर्थ्य है ? उम का क्या महत्त्व ? के अनुसार जिन बिम्ब, जिन मन्दिर प्रादि धर्मायतन मी मात्र तीर्थहरो के गुणों का स्मरण एवं चिन्तवन (धर्म के स्थान) बनवाने चाहिए क्योकि उनक बनवाने से कम दन का माध्यम है। माधन । पाप और हम सभी बड़ा भारी धर्मानुबन्ध होता है, साथ ही इनके बनवाने से जानने कि मन बड़ा चंचल है। वह बिना लगाम के धर्म की रक्षा और वृद्धि होती है। यद्यपि जिनबिम्ब व । कपोकी भांति है। फिर ऐसे अस्थिर मन को जो निन मन्दिर प्रादि बनवाने मे हिसादि दोष लगते है परन्तु पल पल मे भागता है, दौडता है, केमे स्थिर किया वे दोष - -दोष नही है, पुण्णबंध के कारण है।' जमा कि जाय? केमे एकाग्र किया जाय ? लोलगता है कि केवल लिखा भी है 'तत्यानमपि न पाप पत्र महाधर्मानुबंधः" जिनेन्द्र प्रतिमानों के द्वारा ही मन जैसे तेज दौड़क को अर्थात वह पाप भी पाप नही है कि जिसमें बड़ा भागे शुभ प्रवृत्ति में लगाया जा सकता है, उसे स्थिर किया जा धर्मानबंध हो। सकता है। इस पंचम काल में ऐसे तीव्र मोहनीय कर्म का उदय जिनेन्द्र प्रतिमा के समक्ष व्यक्ति विचार करता है होता है जो किसी से निवारण नहीं किया जा सकता। कि हे प्रभो! आपको कितनी प्रशान्त मुद्रा है, पाप में जिनके शास्त्ररूपी नेत्र है ऐसे विद्वान् लोगों की बुद्धि कितनी शान्ति है और आप कितने महान् है, पवित्र हैं। अर्थात् अन्तःकरण की प्रवृत्ति भी प्राय: जिन प्रतिमा के गुणों के तो आप आगार ही है प्रादि-ग्रादि रूपो से वह दर्शन किये विना भक्ति करने में (उन्हो को एकमात्र स्तवन करता हुमा उनके गुणों को अपने में उतारने की शरण मानकर पूजा-सेवा करने मे) प्रवृत नहीं होती। प्रेरणा प्राप्त करता है। सचमुच जिनेन्द्र भगवान का रूप 'प्राय:' 'शब्द से यहाँ यह अभिप्राय है कि कोई-कोई, ज्ञान राग द्वेष से परे वीतरागमय है। इसलिए वस्त्र रहित, और वैराग्य भावना मे तत्पर भव्य जीव प्रतिमा दर्शन के नग्न होने पर भी मन को हरने वाला है। प्रापका यह बिना भी परमात्मा के प्राराधन करने में लीन हो जाते है रूपन औरों के द्वारा हिस्य है और न पोरों का हिंसक और अन्य लोग प्रतिमा दर्शन से ही परमात्मा का पारा १. सागार धर्मामृत, श्लोक सख्या ३५, पृ० १०६, प्रथमावृत्ति, वि० सं० २४४१, मूलचन्द किशनदास कापड़िया, सूरत ।

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