Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 178
________________ जिनेन्द्र प्रतिमा का स्वरूप तथा उसका महत्त्व चिह्न हाथी में ही मिलते हैं, परन्तु प्रकृत्रिम चैत्यालय चारों प्रकार हाथ की हथेली दायें हाथ की हथेली से नीचे होती है) के देवों के भवन प्रासादों या विमानों में तथा स्थल- और खड्गासन (इसमे प्रतिमा सोधी, खड़ी तथा जानुस्थल पर इस मध्य लोक में विद्यमान है। इस लोक पर्यन्त लम्बायमान बाहु वाली होती है) में ही सर्वत्र दिखाई में स्थित होने के फलस्वरूप प्रतिमा स्थावर कहलाती है देती हैं। तीर्थङ्गर की मूर्तियों को उनके चिह्नों से पहि और मोक्षगमन काल में एक समय के लिए वही जंगम चाना जाता है, चाहे वे खड्गासन हों या पद्मासन । जैन जिन प्रतिमा कहलाती है। धर्म में चौबीस तीर्थङ्कर हुए है। इन चौबीसों तीर्थङ्करों जैनदर्शन के अनुसार, व्यक्ति अपने कर्मों का विनाश " के अपने-अपने चिह्न होते है, जिनसे वे समझे-पहिचाने कर स्वयं परमात्मा बन जाता है और उस परमात्मा को जाते है कि यह प्रमक तीर्थदुर है। ये चिह्न तीर्थङ्कर के दो अवस्थाएँ होती हैं -एक शरीर महित, जीवन्मुक्त दायें चरण के प्रगठे में होते है, किन्तु जिनेन्द्र मूर्तियो के अवस्था और दूसरी शरीर रहित, देह मुक्त प्रवस्था । सामने ही ये चिह्न बना दिये जाते है ताकि सहज में ही पहली अवस्था को अर्हन्त कहा जाता है तथा दूसरी मूर्ति के माध्यम से तीर्थङ्कर की पहिचान हो सके । तीर्थअवस्था सिद्ध कहलाती है। प्रहन्त भी दो प्रकार के होते डुरों के नाम और चिह्न निम्न प्रकार से हैहै -- तीर्थङ्कर पोर सामान्य । विशेष पुण्य सहित पर्हन्त विशेष पण्य सहित प्रहन्त तीर्थङ्कर । जिनके कि कल्याणक महोत्सव (जीवनकाल की पाच १. श्री ऋषभनाथ प्रसिद्ध घटनास्थलों का उत्मव–गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, २. श्री अजितनाथ निर्वाण) मनाए जाते है, तीर्थङ्कर कहलाते है और शेष ३. श्री सम्भवनाथ घोड़ा सब सामान्य ग्रहन्त कहलाते हैं।' ४. श्री अभिनन्दन नाथ बन्दर जिनेन्द्र भगवान के इस स्वरूप को समझकर अब यदि ५. श्री सुमतिनाथ चकवा जिनेन्द्र प्रतिमा का अध्ययन किया जाय तो नहज में ही . श्री पदम कमल ज्ञात हो जाएगा कि जिनेन्द्र प्रतिमा अर्हन्त (तीर्थङ्कर) ७. श्री सुपार्श्वनाथ सातिया (स्वस्तिक) तथा सिद्ध अवस्था में ही पायी जाती है । माट प्रातिहायों ८. श्री चन्द्रप्रभु चन्द्रमा (अशोक वृक्ष, तीन छत्र, रत्न खचित सिंहासन, मुख से ६. श्री पुष्पदन्त मगर दिव्य वाणी प्रगट होना, दुन्दुभिनाद, पुषवृष्टि, प्रभा- १०. श्री शीतलनाथ कल्प वृक्ष मण्डल, चौंसठ चमर युक्तता) से युक्त तथा सम्पूर्ण शुभ ११. श्री श्रेयांस नाथ अवयवो वाली वीतरागता के भाव से पूर्ण अर्हन्त को १२ श्री वामपज्य भैसा प्रतिमा होती है तथा सिद्ध की शुभ प्रतिमा प्रातिहार्यों से १३. श्री विमलनाथ शूकर रहित होती है।' १४. श्री अनन्तनाथ सेही सीकर की मूर्तियां केवल दो ग्रासनों--पद्मासन १५. श्री धर्मनाथ वचण्ड (इस अवस्था मे तीर्थङ्कर के दायें चरण ऊपर तथा बायें १६. श्री शान्तिनाथ हरिण चरण नीचे होते है और हाथ इस क्रम में होते है कि बायें १७. श्री कुन्थुनाथ बकरा १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, क्षु० जिनेन्द्रवर्णी, पृ० ३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, क्षुल्लक जिनेन्द्र वज ३००, प्रथम संस्करण, सन् १९७१, भारतीय ज्ञान पृ. १४०, प्रथम संस्करण, १९७०, भारतीय ज्ञानपीठ पीठ, दुर्गाकुण्ड मार्ग, वाराणसी-५ । दुर्गाकुण्ड मार्ग, वाराणसी-५॥ ४. तिलोय पण्णति, गाथा संख्या ६१५-६२७, अधिकार २. दर्शन पाहुड, गाथा संख्या २७, पृ० ११, प्रथम संस्करण संख्या ४, प्रथम संस्करण वि० स० १६१६, जीवराज वि. स. १९७७, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई। ग्रन्थमाला, शोलापुर । गैडा

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