Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 177
________________ जिनेन्द्र प्रतिमा का स्वरूप तथा उसका महत्त्व ॥ श्री राजीव प्रचंडिधा, अलीगढ़ 'सत्यं शिवं सुन्दर' का समन्वित रूप कला है। कला उसके मूर्ति-विधान मे केवल वीतरागता यानी राग-द्वेष से के अन्तर्गत 'जैन मूर्ति कला' सुन्दरता के साथ-साथ सत्य परे के ही अभिदर्शन होते है। जिनेन्द्र मूर्तियां चाहे नन्द तथा कल्याण की भावना से अनुप्राणित है। सचमुच जैन या मौर्य काल की हो, चाहे कुशान काल को रही हों, मूर्ति कला अपनी विशेषता रखती है । कला-क्षेत्र मे ससका चाहे प्राचीनतम काल की हो, प्राज की जिनेन्द्र प्रतिमाओ अपना एक स्थान है। से भिन्नता रखती है। सर्वप्रथम मस्तिष्क मे प्रश्न उठता है कि मूर्ति क्या जिनबिम्ब यद्यपि निर्जीव है, पर लगते है सजीव है? 'मूति' के अनेक पर्याय है-प्रतिमा, प्रतिकृति, चित्र, से। पापाणादि के होते हए भी वे पच भौतिक तत्त्वो तस्वीर, शक्ल-सूरत, फोटो प्रादि-आदि । किन्तु समझने (क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा) से विनिर्मित शरीरकी दृष्टि से मूर्ति को दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा मय है। मूक में भी अमुक दिखते है । कारण ? कारण सकता है : यह है कि विम्ब एक ऐसे शिल्पी के द्वारा तराशे जाते है १. तदाकार मूर्ति । २. अतदाकार मूर्ति । जो इनमे वीतरागता, विरागता तथा समता जैसे सुन्दर पदार्थ के असली आकार को मूर्ति तदाकार मूर्ति के सस्कारो को भरने में काफी सक्षम होते है। वास्तव मे अन्तर्गत पाती है, जैसे मनुष्य, हाथी, घोड़ आदि के खिलौने, ये बिम्ब विन बोले हो मानव के सोय हुए पात्म सस्कारों तस्वीर, प्रतिमा मादि । पदाथ क मसला याकार मन हात को जगा दते है, और भर देते है उनमें एक नई चेतना । हए भी जिस मति मे उस पदार्थ का वाध कराने का चिह्न इनके दर्शन मात्र से व्यक्ति सुख-शान्ति से प्राप्लावित हो समाहित हो वह मतदाकार मूर्ति कहलाती है। उदाहर जाता है । सच है वीतरागी की वीतराग मूर्तियो से रागणार्थ, शतरज की गोटें । ये गोटें शतरंजी खेल म राजा, द्वेष को जीतने की प्रेरणा व्यक्ति में समा जाती है। मन्त्री, हाथी, घोडा प्रादि के स्वरूप को स्थिर करती है।' __ यह अपने मे सत्य है कि बिम्ब का प्रभाव मानव सचमु व जिनेन्द्र बिम्ब स्थायी कोश है और हैं अन्तहृदय पर स्पष्ट रूप से पड़ा करता है, इस बात को विज्ञान रग के प्रेरक । ये बिम्ब उन दिव्य आत्माओ का हमे क्षण भी स्वीकारता है। बाह्य वस्तुओं की प्रेरणा से जा विचार प्रतिक्षण स्मरण करते है जिन्होने लोकहित के लिए तथा बिम्ब मस्तिष्क मे बनते है, उनका प्रभाव मानव शरीर के स्व-पर कल्याण के लिए अपना जीवन समर्पण किया है। कण-कण पर पड़ता है, ऐसा डा० लिटनटन कहत है। धन्य है और अनन्य है ऐसे जिनेन्द्र बिम्ब जिनसे व्यक्ति सचमुच गन्दे प्रतिबिम्ब गन्दगी फैलाते है और उजले अज्ञान के घरातल से उठकर ज्ञान के पामीर तक सहज वीतराग प्रतिबिम्य स्वच्छता । मे पहुच लेता है। जैन धर्म प्रवृत्ति की अपेक्षा निवृत्ति मूलक है, अर्थात् जिन प्रतिमा व उनका स्थान (मन्दिर) वस्तुतः अभिलाषामो (बहिरंग विषय-कषायादि) के त्याग पर चैत्य व चैत्यालय कहलाते है। ये मनुष्य कृत भी होते है विशेष बल देता है। प्रस्त, प्रारम्भ से लेकर अधुनातन और प्रकृत्रिम भी । मतुष्यकृत चैत्यालय तो मनुष्य लोक १. 'मत्यार्थ दर्पण'-- स्व. पं० प्रजित कुमार जैन, शास्त्री, सन १६३७, भा. दि. जैन शास्त्राथं सघ, अम्बाला छावनी।

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