Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 175
________________ १०, वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त ऋग्वेद मंत्र १० सूक्त १२१ की पहली ऋचा इस साधना मोर तपस्था से मनुष्य शरीर में रहते हुए उसे प्रकार है प्रमाणित भी कर दिखया था। ऐसा उल्लेख भी वेदो पे हैहिरण्यगर्भः समवर्तता ग्रे भूतस्य जातः पतिरेक प्रासोत। तन्मय॑स्य देवत्वमजानमगे। - ऋग्वेद ।३१.१७ स दाधार पृथिवीं चामुतेमा कस्मै देवाय हविषा विधेमः ॥ ऋषभ स्वयं प्रादि पुरुष थे, जिन्होने सबसे पहले इसमें कहा गया है कि पहले हिरण्यगर्भ हुए। वह मर्त्यदशा मे देवत्व की प्राप्ति की थी। प्राणीमात्र के एक स्वामी थे। उन्होने प्राकाश सहित ऋषभदेव प्रेम के राजा के रूप में विख्यात थे। पृथ्वी को धारण किया। उन्होने जिस शासन की स्थापना की थी, उसमे मनुष्य व महाभारत के शान्तिपर्व में भी "हिरण्यगर्भ. योगस्य पशु सभी समान थे। पशु भी मारे नहीं जाते थेवक्ता नान्या पुरातनः ।" अर्थात हिरण्यगर्भ योगमार्ग के नास्य पशून् समानान हिनास्ति । -अथर्ववेद । प्रवर्तक है, अन्य कोई उनसे प्राचीन नहीं है। तो क्या सव प्राणियो के प्रति इस मंत्री भावना के कारण ही ऋषभ ही तो हिरण्यगर्भ नही है ? । वे देवत्व के रूप में पूजे जाते थे। ___ ऋषभ इक्ष्वाकुवंशी थे । इक्ष्याकु मूलतः पुरु राजाम्रो ऋषभं मा समासानां सपत्यानां विषासहितम् । की एक परम्परा थी, यद्यपि ऋग्वेद में पुरुषो को सरस्वती हन्तारं शत्रणां कृषि विराजं गोपितं गवाम ।। के तट पर बतलाया गया है। किन्तु उत्तर इक्ष्वाकुप्रो का -ऋग्वेद प्र०८ म० सू० २४ सम्बन्ध अयोध्या से था। जैनागम मे अयोध्या को ही इसलिए ही मुद्गल ऋषि पर ऋषभदेव की वाणी ऋपभदेव का जन्म स्थान माना है। उधर माख्यायन श्रोत्र के विलक्षण प्रभाव का उल्लेख करते हुए कहा मया हैसत्र में हिरण्यगर्भ को कौशल्य कहा गया है। अयोध्या को ककर्ववे वृषभो युक्त प्रासीद प्रवावचीद सारथिरथस्य केशी। कौशन देश में कहा गया है। अतः कोशल श में जन्म लेने दुर्युक्तस्यं यतः महानस ऋच्छन्तिस्मा निरूपदोमबगलानीम।। से ऋषभदेव को कोमल्य कहा जा सकता है। -ऋग्वेद १०.१०२१६ ऋग्वेद में भगवान ऋषभदेव का अनेक जगह उल्लेख इसीलिए उन्हे पाह्वान करने की प्रेरणा दी गई है-- हा है।" एक जगह ऋषभदेव की स्तुति 'हिमक प्रात्म- महोमुच वृषभं यज्ञियानां विराजं तं प्रथममध्यराणाम । साधको मे पथम, मधुनचर्या के प्रणेता तथा गत्यों में अपां न पातमश्विनाह वेषिय इंद्रियेण इद्रियं दतभोजः । -अथर्ववेद, का. १९४२१४ सर्वप्रथम अमरत्व तथा महादयत्व पाने वाले महापुरुष के अर्थात् समस्त पापो से युक्त, अहिंसक वृत्तियों के रूप में की गई। एक अन्य स्थान पर उन्हें ज्ञान का प्रथम राजा, मादित्यस्वरूप श्री ऋषभदेव को मैं प्राह्वान प्रागार थाना में शत्रुमो का विध्वंगत बनाया है। करता है। वे मुझे बद्धि पौर इन्द्रियों के साथ बल प्रदान करें। प्रसूतपूर्वा वृषभो ज्यापनिभा बस्य शुरुषः सन्तिपूर्वीः । ऋग्वेद में उन्हे स्तुति योग्य बताते हुए कहा गया है-- हिवान पाता विदयस्यधीभिः क्षत्र राजावा प्रदिवो दद्याथे॥ अनर्वाणं ऋषभं मन्द्रजिह, बहस्पति वर्षया नव्यमके। - ऋग्वेद ५१३८ - ऋग्वेद म० १ सूत्र १९० मन्त्र १ वापदेव का प्रमुख सिद्धान्त था कि आत्मा में ही मिष्टभाषी, ज्ञानी, स्तुति-योग्य ऋषभ को पूजा साधक का अधिष्ठान है। अतः उसे प्राप्त करने का मत्रो द्वारा वधित करो। व स्तोता को नहीं छोड़तेउऋम का। इगी सिद्धान्त की पुष्टि करते हुए वेदो में। प्राग्नये वाचमीरय। -ऋग्वेद मं० १० सूत्र १८७ उनका नामोल्लेख करते हुए कहा गया है तेजस्वी ऋषभ के लिए स्तुति प्रेरित करोत्रिधा बद्धो वषभो रोखीती, महादेवो मानाविवेश। -ऋग्वेद ।४।५८।३ शातारमिन्नं ऋषभं वदन्ति, प्रतिचारमिन्नं तमपरिष्टनेमि भवे भवे । मन, वचन, काय नीनो योगो से बद्ध वृषभ ने घोषणा सुभवं सुपाश्वमिन्द्रं हवेतु शक। की कि महादेव मयों में प्रवास करता है। उन्होंने अपनी प्रजितं तद् बर्द्धमान पुरुहूतमिन्नं स्वाहा ॥ ६१. ऋग्वेद १२४.१६१ २४।३३।१५; ५२।२८।४ ६।२।२।८ ६।१६११० १०॥१२॥१६६१ तथा ऋग्वेद मे ही १०११०२।६,४.५८।३.

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