Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 187
________________ समयसार में तत्त्व-विवेचन की दृष्टि D डा. दामोदर शास्त्री, नई दिल्ली जैन साहित्य के इतिहास में 'समयसार' जैसी कृति णति होकर विभाव-अवस्था या विकृति होती है और इस अनुपम है। इस कृति में प्राध्यात्मिकता व दार्शनिकता प्रकार बन्धन और भी दृढ़तर होता चला जाता है। का अनूठा समन्वित रूप देखने को मिलता है, साथ ही संक्षेप मे, मोह व राग-द्वष बन्ध के कारण है।' इसलिए जैन दार्शनिक साहित्य में एक नई परम्परा का सूत्रपात ममक्ष को प्रात्म-ज्ञान तथा रागद्वेषहीन समतावस्था की भी। जैन साहित्य के समग्र इतिहास पर दृष्टि डालें तो प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। बन्ध के हेतु हमें इस कृति से पहले एक भी ऐसा ग्रन्थ नही मिलता यद्यपि मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय आदि कई है, जिसमे समयसार की तरह मुक्ति को या परमात्मावस्था तथापि मिथ्यात्व व कषाय का नाश हुए बिना, विशेषतः को प्रतावस्था की स्थिति के रूप में चित्रित किया गया प्रज्ञान या मोह को नष्ट किये बिना साधना की कोटि पर हो । प्रात्म-निरूपण मे जो तत्त्व-दष्टि भी अपनाई गई है, चढ़ना असभव है। वह अपूर्व है । जिज्ञासा स्वाभाविक है कि प्राच यं कुन्दकुन्द इस प्रकार तत्त्व-ज्ञान, विशेषकर आत्मज्ञान जैनको समयसार जैसा ग्रन्थ लिखने की क्या आवश्यकता हुई, मक्तिमार्ग का अनिवार्य अंग है। जैन प्राचार्यों के मत मे या वे कौन-सी परिस्थितिया थी जिन्होने प्राचार्य कुन्दकून्द को 'समयसार' लिखने के लिए प्रेरित किया। इस प्रात्मा का ज्ञान प्रात्मा व अनात्म दोनो को जाने विना प्रश्न के समाधान के लिये हमे जैन दर्शन के बन्ध व मोक्ष सम्भव नही । सक्षेप मे, भेदविज्ञान से ही मुक्ति का द्वार की पूर्व स्वीकृत प्रक्रियाग्रो का अध्ययन करना होगा। खुल सकता है। अतः प्रात्मा के साथ-साथ अनात्म अजीव पदार्थ का ज्ञान भी जरूरी हो गया, और यही समयसार से पूर्व मोक्ष प्राप्ति की जो मान्यता प्रमुख कारण था कि जैन पागम व प्रागमेतर साहित्य जीवरूप से प्रचलित रही, वह यह थी कि प्रात्म-अनात्म का अविवेक हमारे बन्धन का कारण है। प्रात्मस्वरूप का सही अजीव, पंचास्तिकाय या पद्व्य के निरूपणों से भरा पड़ा है। ज्ञान न होने से अनात्म पदार्थ को भी हम पात्मा समझ बैठे है। इसी प्रज्ञान से हमारी प्रात्मा म रागद्वेषादि परि- इस प्रकार, एक तरफ उपनिषदो के 'प्रात्मा वा मरे १. प्रवचनसार, १८३.८४ । २. रागद्वेषविमोहाना ज्ञानिनो यदसभवः । तत एव न बन्धोऽस्य ते हि दन्धस्य कारणम् ॥ -समयसारकलश, ११९ ३. उत्तराध्ययन, ३२.२ तथा ३२.६; प्रवचनसार १.८०-८१, त. सू. १०.१ । ४. तत्त्वार्थसूत्र- १ । ५. दुक्ख हय जस्स न होइ मोहो (उत्तरा, ३२८)। ६. भगवती याराधना-७७१, उत्तरा. ६.२; दशवं. ७. अताणमेव अभिनिगिज्झ एव दुकावा पमोक्खसि । (पाचारांग ) ५. भेदविज्ञानत. सिद्धा: सिद्धा ये किल केचन । अस्यवाभावतो बद्धा वद्धा ये किल केवन ।। (समयसारकलश-१३१) येतात्माबुढ्यतात्मैत्र, परत्वेनैव चापरम् ।। (समाधिश. १) ६. प्रात परं च जाणेज्जा (इसिभासिय-३५१२) । १०.णिय जदय जाणणइयर कहियं जिणेहि छद्दव्वं । तम्हा परछद्दव्वे जाणगभावो ण होइ सण्णाणं ।। (बृहद् नयचक्र-)

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