Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 188
________________ समयसार में तस्व-विवेचन की दृष्टि द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः" के स्वर से, दार्शनिक दृष्टिकोण सम्बन्धी क्रान्तिकारी परिवर्तन भी तो दूसरी तरफ प्रकृतिपुरुषान्यतास्याति से मुक्ति मानने प्रस्तुत किया गया है । उदाहरण-स्वरूप सबंज्ञता के स्वरूप वाले सांख्य दर्शन से जैन दर्शन का ऐकमत्य दिखाई को लें। प्रा० कुन्दकुन्द के पूर्व यह मान्यता थी कि केवल पड़ता है।" ज्ञान का प्रतिफल ससार के समस्त पदार्थों के कालिक हम देखते है कि क्रमशः जैन साहित्य में प्रात्मज्ञान स्वरूप को जानना है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ऐसे पहले व्यक्ति द्रव्य ज्ञान का पर्यायवाची-सा बन गया," क्योंकि यह थे, जिन्होंने घोषणा की कि केवली का लोक-ज्ञान एक माना जाने लगा कि किसी भी एक द्रव्य को जानना सब व्यावहारिक दृष्टि से कथन है, वास्तव मे तो वह प्रारमतक सम्भव नहीं, जब तक अकालिक त्रिलोकस्थ पदार्थों तत्त्व का दर्शन है। का ज्ञान न हो।" प्राचार्य कुन्दकुन्द के पूर्ववर्ती मा. नियमसार में उन्होंने कहाउमास्वामी कृत तत्त्वार्थसूत्र मे मोक्षमार्ग का जो रूप अप्पसरूवं पेच्छदि, लोयालोयं ण केवली भगवं प्रस्तुत किया गया है, वह उक्न सब कथनो का प्रतिफलित (नियमसार -१६६)---अर्थात् केवलज्ञान शुद्ध प्रास्मरूप है। इसी क्रम में लोकस्वरूप के सम्बन्ध में भा स्वरूप का द्रष्टा होता है लोकालोक का नही। उनके भारी भरकम साहित्य की रचना बढ़ती गई, और यह मत मे व्यवहार नय मे 'केवलज्ञानी' सर्वद्रव्यपर्यायों को 11 माला भी प्रावश्यक था, क्योकि केवली व ताथ- जानता देखता है, पर निश्चय नय से तो शद्ध प्रात्मा को डरो की सर्वज्ञता का निरूपण करते हुए उन्हे जगत के ही देखता-जानता है।" कालिक पदार्थों का ज्ञाता माना गया। इस प्रकार, हम प्राचार्य कुन्दकुन्द के इन सब कथनो का उद्देश्य यह देखते है कि तत्त्वज्ञान के केन्द्र-बिन्दु ग्रात्मा तक पहुचना रहा कि साधक लोक स्वरूप के परिचायक जटिल साहित्य कुछ जटिल हो गया था। अल्पजीवन वाले साधक जीवा.. मे, साथ ही बाह्य क्रियाकाण्डों में उलझ कर रह न जायर जीव व लोक.स्वरूप के ज्ञान मे ही अगर उलझ जायें तो और प्रात्ममुखी प्रवृत्ति को दृढ करे । प्रात्म-साधना या प्रात्मविज्ञान के मार्ग में प्रगति का मन्द होना स्वाभाविक है। इसलिए यह उस समय की इसी सन्दर्भ मे समयमार के पूर्वरग (प्रस्तावना रूप) मांग थी कि ऐमा साहित्य रचा जाय जो साधक के समक्ष में उन्होंने साधक को प्रात्मलक्षी होने के लिए बड़े हो तत्त्वज्ञान के केन्द्रबिन्दु प्रात्मा को उजागर करे अन्य प्रभावपूर्ण व सहज सुबोधगम्य तरीके से प्रेरणा देते हुए तत्त्वो के ज्ञान की अपेक्षा प्रात्म-ज्ञान को प्रमुखता दे और कहा है - साथ ही ऐसा रास्ता भी सुझाये जिमसे अन्य द्रव्यो का लोक मे हम देखते है कि अर्थ-सिद्धि का स्रोत राजा सामान्य ज्ञान प्राप्त करते हुए, शीघ्र व सरलता से पात्म होता है । यदि 'अर्थ' की प्राप्ति करनी हो तो राजा के तत्त्व की शुद्ध प्रवस्था तक पहुचा जा सके। प्रति श्रद्धा तथा उसके स्वभाव आदि की जानकारी तथा प्राचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थो मे साधक की दृष्टि को उसी का अनुसरण करना प्रावश्यक है, उसी प्रकार । पदार्थ. पूर्ण प्रात्मलक्षी बनाने का प्रयास मफल रहा है। इनमे विज्ञान या मुक्ति-मार्ग का केन्द्रबिन्दु तो प्रास्मा है, उसी ११. बहदा. उप. २.४६। १२. सांख्यकारिका-६४, उत्तरा. ३६.१-२। १३. जे प्रज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ । जे बहिया जाणइ से अज्झत्थ जाण ॥ (उद्धृत-- स्याद्वादमजरी, का. १४) जो एग जाणइसे सव्वं जाणइ । जो सव्वं जाणइ से एग जाणइ॥ (माचारांग १.३.४.१२२) १४. प्रवचनसार-४८ । १५. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । जीवाजीवानवबन्ध संवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् (तत्त्वार्थसू. १२ तथा १.४) १६. जाणादि पस्सदि सब्द बवहारणएण केवली भगव । केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण मप्पाणं ।। (नियम. १५६) १७.६० समाधिशतक-४॥

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