Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 173
________________ 45 वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त के प्रति वैदिक ऋषि प्रारम्भ से ही निष्ठावान रहे है और ऋग्वेद में श्रमण" शब्द तथा वातग्शना: मुमय: उन्हे वे देवाधिदेव के रूप में मानते रहे है। (वायु जिनकी मेखला है, ऐसे नग्न मनि) का उल्लेख श्रमण हा है ।" बृहदारण्यक उपनिषद् में श्रमण के माथ साथ "श्रमण" शब्द की रचना "श्रम" धातु (श्रम तपसि 'तापम' शब्द का पृथक प्रयोग हुपा है। इससे स्पष्ट है खेदे च) मे ल्युट् प्रत्यय जोड कर हुई है। प्राचार्य हरिभद्र कि प्राचीनकाल से ही तापस ब्राह्मण एवं श्रमण भिन्न सूरि का कथन है -- "श्राम्यतोति श्रमणः तपस्यतीत्यर्थ:"७२ माने जाते थे । तैत्तिरीय पारण्यक मे तो ऋग्वेद के 'मन योः वातरशना" को श्रमण ही बताया गया है।" उपयुक्त अर्थात जो तप करता है वह श्रमण है। इस प्रकार श्रमण का अर्थ हुमा तपस्वी या परिब्राजक । उद्धरणों से प्राचीन वैदिक काल से ही श्रमणों का अस्तित्व एवं प्रभाव स्पष्ट रूप से व्यक्त होता है। श्रमण शब्द का अर्थ अत्यन्त व्यापक है। विभिन्न वैदिक वाङ्मय के अतिरिक्त रामायण, महाभारत" भाषाम्रो मे उपलब्ध अमण शब्द के विविध रा (ममण, तथा भागवत पृगण श्रमणो का स्पष्ट उल्लेख हा शमण, मवण, श्रवण, प्रमण, सरमनाइ, श्रमणेरादि) है। श्रमण सस्कृति के प्राद्य प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव वा श्रमण शब्द की व्यापकता गिद्ध करते है।" मिश्र, सुमेर, भी उल्लेख वेदो५ तथा पुराणों में श्रद्धापूर्वक दिया असुर, बाबुल, यूनान, रोम, चीन, मध्य एशिया, प्राचीन गया है। अमेरिका, अरब, इसराइल प्रादि प्राचीन देशो मे भी वातरशना श्रमण सस्कृति किमी न किसी रूप में विद्यमान थी, यह ऋग्वेद में जिन 'वानरगन' मनियो का बहधा उल्लेख अनेक ऐतिहामिक एव पुरातात्त्विक साक्ष्यो से सिद्ध हो हुमा है वे भी अाहेत अथवा जंन हान चाहिए । मायण चुका है। ने भी इन्ही बात रशन मनियों को अतीन्द्रियार्थदर्श कहा - ७१. भगवान परमषिभिः प्रमादितो नाभ: प्रिपचिकीर्षपा ७६. महाभारत - १२॥१५४।२१ तदवरोधायने मरूदेव्या धर्मान् दर्शायितुकामा वात- ८.. सन्तुष्टा' करुणा मंत्रा: शान्ता दान्तास्तिविक्षवः । रशनाना श्रमणानाना ऋषीणाम् उर्वमन्थिना शुक्ल्या प्रात्मारामाः सहदशः प्रायशः श्रमणा: जनः । तन्वावतार । - भागवत पुराण ७२. दशवकालिक मूत्र १।३।। ८१. ऋग्वेद, १०।१०२।६ तथा ४१५८।३ ७३. विशेष के लिए देखे लेखक का शोध प्रबन्ध "जैन हरि- ९२. (१) वहिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान परमर्षािभः वश पुराण का सांस्कृतिक अध्ययन" पृ० ६३ । प्रसादियो नामेः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने ७४. तृदिना प्रतृदिलासो अद्रयो श्रमणा अगथिता प्रमृत्यवः । मेरुदेव्यां धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनाना ऋग्वेद १०१९४११ -- प्रश्रमणा: श्रमणजिता श्रमणानामृषीणामूर्वमन्थिनां शुक्लया तनुवाबतसायण भाष्य । तार ।। -भागवत पुराण ५।३।३० ७५. मुनयो: वात रशना पिशङ्गावसते मला: । (२) ऋग्वेद १०१११११३६।२-३ --ऋग्वेद १०११३०२ ५३. (१) मुनयो वातरशना पिशगा वसते मला । ७६. श्रमणोऽश्रमण स्तापमोऽतापसः । भवति-बृहदारण्य घातस्यानु जि यन्ति यद्देवासो अविक्षत ॥ कोपनिषद ४।३।२२ उन्मदिता मौनयेन वातां मातस्थिम वयम् । ७७ वातरशना ह व ऋषयः श्रमणा: उर्वमन्थिनो वभुवः। -तत्तिरीयारण्यक २७ शरीरेचस्माकं मतां सो अभिपश्यथ ।। ७८. तापसाः भुंजते चापि श्रमणाव मुंजते । - ऋग्वेद १०।११।१३६३२ -रामायण १११११२ (२) तैत्तिरीयारण्यक-११२३३२; ११२४१४; १७.१२

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