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५६, वर्ष ३१, कि० ३-४
अनेकान्त
शिवपुराण", मत्स्य पुराण", देवी भागवत प्रादि पुराणो से भी होती है। इनमे जैन धर्मों की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे अनेक प्राख्यान उपलब्ध होते है ।
महंतेतं महाधर्म मायारोहेन ते यतः।। प्रोक्तास्तप्राधिता धर्ममाहतास्तेन तेऽभवन् ।।"
विष्णुपुराण के इम उल्लेखानुपार, जो लोग पाहत धर्म को मानने वाले थे उनको मायामोह नामक किसी व्यक्ति विशेष ने ग्राहंत धर्म मे दीक्षित किया था। उसी मायामोह नामक व्यक्ति ने अनेकान्त वाद का निरूपण किया था। वे ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद में श्रद्धा नही रखते थे। वे यज्ञ और पशु बलि मे भी विश्वास नही रखते थे।" हिसा धर्म में उनका पूर्ण विश्वास था। वे श्राद्ध और कर्मकाण्ड के विरोधी थे।
गतडिनो विसोकस्स विप्पमुत्तस्त सम्वधि। सम्बगन्धपहीनस्स परिलाहो न विज्जत्ति ॥
- धम्मपद अरहन्त बग्गो ६० अर्थात् अरहन्त वह है जिसने अपनी जीवन यात्र। समाप्त कर ली है, जो शोक राहत है, जो ससार स मुक्त है, जिसने सब प्रकार के परिग्रहों को छोड़ दिया है और जो कष्ट रहित है।
ऐसा प्ररहन्न जहाँ कहाँ भी विहार करता है वह भूमि रमणीय है -
यत्पारहन्तो विहरन्ति भमि रामणयेक । ४१. शिवपुराण ॥४.५ ४२. मत्स्यपुराण २४:४३-४६ ४३. देवी भागवत ४११३३५४-५७ ४४. विष्णु पुराण ३।१८।१२ ४५. विष्णुपुराण ३१८१८-११ ४६. विष्णुपुराण ३।१८।१३-१४ ४७. विष्णुपुराण ३।१८।२७ ४८. विष्णुपुराण ३.१८।२५ ४६. विष्णुपुराण ३११८:२८.२६ ५०. सयुक्त निकाय ५।१६४ गोतमधुद्ध पृ० १४७ ५१. वियते यद् तदवतम्, व्रते साधु कुशले वा इति व्रात्यः। ५२. Vraty a as initiated in Vratas Hence Vra-
tya means a person who has volmitanly
बुद्ध ने कहा था "भिक्षो, प्राचीनकाल में जो भी अरहन्त तथा बुद्ध हुए थे उनके भी ऐसे ही दो मुख्य अनुयायी थे जैसे मेरे अनुयायी सारिपुत्त और मोग्गलायन है।"५. प्रात्य:
व्रात्य शब्द का मूल व्रत है। व्रत का अर्थ धार्मिक सकल्प और जो संकल्पो को करता है, कुशल है वह व्रात्य है।" डा. हैवर प्रस्तुत शब्द का विश्लेषण करते हैब्रात्य का अर्थ व्रतों मे दीक्षित है अर्थात् जिसने प्रात्मानुशासन की दृष्टि से स्वेच्छापूर्वक व्रत स्वीकार किये हो, वह व्रात्य है।५२
व्रात्य शब्द अर्वाचीन काल मे प्राचार और सस्कारों से हीन मानवो के लिए व्यवहन होता रहा है। अभिधान चिन्तामणि कोश मे आचार्य हेमचन्द्र ने भी यही अर्थ किया है। ५३ मनुस्मृतिकार लिखते है ---क्षत्रिय, वैश्य और ब्राह्मण योग्य अवस्था प्राप्त करने पर भी प्रसस्कृत हैं क्योकि वे व्रात्य है और वे पार्यों के द्वारा गहणीय है।५४ उन्होंने प्रागे लिखा है ---जो ब्राह्मण, मतति, उपनयन और व्रतो से रहित हो उस गुरु मंत्र से परिभ्रष्ट व्यक्ति को व्रात्य नाम से निर्दिष्ट किया गया है।५५ ताण्डय ब्राह्मण में एक स्तोत्र है जिसका पाठ करने से अशुद्ध व्रात्य भी शुद्ध और सुसस्कृत होकर यज प्रादि करने का अधिकारी हो जाता है ।१६ इस पर भास्य करते हुए सायण ने
accepted the moral code of Vows for his
own spiritual discipline- by Dr. Hebar. ५३. व्रात्यः संस्कारवजितः। व्रते: साधु कालो ब्रात्यः ।
तच भवो व्रात्यः प्रायश्चिताह' सस्कारोऽत्र उपनयनं
तेल वजितः । - अभिधान चिन्तामणि कोष ३५१८ ५४ प्रत उर्व त्रयोऽप्येते, यथा कालमसस्कृताः । सावित्रीपतिता ब्रात्या भवन्त्यार्थविहिताः ॥
--मनुस्मृति ११५१८ ५५ द्विजातय. सवर्णामु 'जनयन्त्यव्रतांस्तु तान । तान सावित्री-परिप्रष्ट्रान बाह्यानिति विनिदिशेत् ।
-मनुस्मृति १०१२० ५६. हीना व एने । हीयन्त ये व्रात्या प्रवसन्ति । षोडशो
वा एतत् स्तोमः समाप्तुमर्हति । -ताण्डय ब्राह्मण