Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 169
________________ १४ कि. ३.४, वर्ष ३१ वैदिक एवं पौराणिक साहित्य में जैन संस्कृति के तत्व: है कि वेद तथा अनेक पार्श्ववर्ती ग्रन्थो में अहन, व्रात्य, अरिहननादरिहंता,........." रोहननावा परिहन्ता, धमण, वातरशना, केशी, ऋषभ और वृषभ, पार्व, भतिशय पूजाहत्वादा मरिहन्ता । अरिष्टनेमि, महावीर प्रादि संज्ञायें जैन संस्कृति की प्राग- अर्थात अरिहन्त वे है जिन्होंने कर्म शत्रों का अथवा तिहासिकता को सिद्ध करती है। रामायण, महाभारत व कर्ममल का नाश कर दिया है तथा जो अतिशय पूजा के पुराणों में भी उपरोक्त संज्ञाएं पायी है। योग्य है। बहन जरवाहिजम्ममरणे च उगइगमणं च पुण्णपावं च । जैन धर्म मे पांच अवस्थाम्रो गे मम्पन्न प्रात्मा गर्वो- हतूण दोषकम्मे हुउणाणमयं च प्ररहती। त्कृष्ट एवं पूज्य मानी गई है। इनमें अरहन्न मर्व प्रथम अर्थात जिन्होंने जरा, व्याधि, जन्म, मरण, चतुगंतिहै। अरहन्त किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं है, वह गमन, पुण्य, पाप - इन दोषा तथा कर्मों का नाश कर तो प्राध्यात्मिक गुणों के विकाम से प्राप्त होने वाला दिया है और जो ज्ञानमय हो गये है, वे अगहन्त ।। महान् मंगलमय पद है। अरहन्त की इन्ही विशेषताग्रो को पंचाध्यायी में इस जैनागम में अगहन्त का स्वरूप निम्न प्रकार बनाया प्रकार बताया गया हैगया है-जिन्होंने चार घातिथा कर्मो का नाश कर दिया दिव्योदारिकदेहस्था घौतघातिचतुष्टयः । है, जो अनन्त दर्शन सुव ज्ञान और वीर्य के धारक है, जो ज्ञानदग्वीर्य सौख्यादयः सोऽह न धर्मोपदेशकः ।।५ उत्तम देह में विराजमान है और जिनकी प्रात्मा शुउह ग्ररहन्त शब्द के विभिन्न भापायो म निम्न प्रकार के वे महंत है। रूप रह है - णटुबदुखाइकम्मो बसणस हणाण वीरियमईयो। सस्कृत महत् सहदेहत्थो प्रम्मा सद्यो अरि हो विचितिज्जो ।। प्राकृन अरहन तया अरिहंत द्रव्य मग्रह ५० पालि अरहन्त श्री गणेश प्रमाद ने लिखा है कि 'द्रविड़' अपन इष्ट जन शौरसेनी अछह देव को अहन, जिन, परमप्ठी एव ईश्व' के नाम में मागधी प्रलहंत तथा प्रलिहत माभिहित करते थे। जीवन शुद्धि के लिए अहिंसा एव अपभ्रश मलहतु तथा अलिहतु संयम पोर तपो मार्ग के अनुयायी थे। इतना ही नहीं, ये तमिल अरूह सांसारिक अभ्युदय से विरक्त हो त्यागी, भिक्षाचारी एवं कन्नड़ अरूहत, मरूह अरण्यवासी बन चुके थे। ग्रहन, जिनपरमेष्ठी एव ईश्वर परहन्त शब्द प्राकृत है। इसका संस्कृत रूप है का निर्विकार आदर्श ही इनके जीवन का परम आदर्श 'महत' । 'मह पूजायाम्' अर्थात् पूजार्थक 'अहं' धातु से था। साधु दिगम्बर होते थे, केश बड़े-बड़े रखते थे, 'महः प्रशंसायाम्' पाणिनि-सूत्र से प्रशसा अर्थ मे शत अधिकतर केवल वायु के आधार पर जीवन यापन करत प्रत्यय होकर 'अहंत' शब्द बनता है। प्रथमा के एक वचन हुए निरन्तर अात्म चिन्तनशील रहते थे । ये लोग तपस्या में 'उगिदचा सर्वनामस्थानेः धाते.' पाणिनि सूत्र से 'तुम' एवं श्रम के साथ साधना कर 'मृत्यु' पर विजय प्राप्त कर वा पागम होकर 'महन्' पद बनता है। सम्बोधन एक लेते थे। ___ वचन मे भी 'प्रहन' पद बनता है । प्राकृत भाषा मे 'शतृ' धवला टीका में परहन्त का अर्थ करते हए लिखा प्रत्पय के स्थान पर 'स्त' प्रत्यय होकर 'महत्' रूप बनता २२. भारत के आदिवासी और उनकी सस्कृति (लेख .. २३. धवला टीका प्रथम पुस्तक, पृ० ४२.४४ श्री गणेशप्रसाद) महावीर जानी मारिका, गन् २४. गोधपाहड, ३० .५ पदाध्यायी २१६०७

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