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श्रमण संस्कृति की प्राचीनता : पुरातत्व और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में
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भी व्रात्य का अर्थ माचारहीन किया है।"
तक निराहार रहने पर भी उनके शरीर की पुष्टि और उपयुक्त सभी अर्वाचीन उल्लेखों मे व्रात्य का अर्थ दीप्ति कम नहीं हुई थी। प्राचारहीन बताया गया है। जब कि इनसे पूर्ववर्ती ग्रन्थो व्रात्य प्रासीदीयमान एव स प्रजापति समरयत" में इसके विपरीत विद्वत्तम, महाधिकारी पुण्यशील, विश्व इस सूत्र मे "प्रामोदीयमान' शब्द का प्रयोग हमा है सम्मान्य आदि विशेषण प्रयुक्त हुए है। व्रात्यकाण्ड की जिसका अर्थ होता है -पर्यटन करता हुअा। यह शब्द भूमिका मे सायण ने लिखा है ---इसमे ब्रात्य की स्तुति श्रमण सस्कृति के सन्त की ओर निर्देश करता है। इसके की गई है। उपनयन प्रादि से हीन मानव व्रात्य कहलाता अतिरिक्त भी व्रात्य को अनेक जगह घूमने वाला साधु भी है। ऐसे मानव को वैदिक कृत्यो के लिए अनधिकारी कहा गया है। श्रमण संस्कृति का साधु भी प्रादिकाल से और सामान्यतः पतित माना जाता है। परन्तु कोई व्रात्य ही घुमक्कड रहा है। घूमना उसके जीवन की प्रधान ऐसा हो जो विद्वान् और तपस्वी हो, ब्राह्मण उससे भले दिनचर्या रही है। वह पूर्व पश्चिम उत्तर" और दक्षिण ही द्वेष करे, परन्तु वह सर्व पूज्य होगा और देवाधिदेव पर- पादि मभी दिशाओ मे अप्रतिबद्ध रूप से परिभ्रमण करता मात्मा के तुल्य होगा। यह तो स्पष्ट है कि अथर्ववेद के है। जैनागम माहित्य मे अनेक स्थलो पर उसे अप्रतिबन्धव्रात्य काण्ड का सम्बन्ध किसी ब्राह्मणेत्तर परम्परा से है। बिहारी कहा है। वर्षावास के समय को छोडकर शेष व्रात्य ने अपने पर्यटन में प्रजापति को भी प्रेरणा दी थी।६० पाठ मास तक वह एक ग्राम से दूसरे प्राम, एक नगर से उस प्रजापति ने अपने मे सुवर्ण पात्मा को देखा। दूसरे नगर विचरता रहता है। भ्रमण करना उसके लिए
प्रश्न हो सकता है कि व्रात्य कौन है, जिसने प्रजापति प्रशस्त माना गया है। को प्रेरणा दी? डा. सम्पूर्णानन्द व्रात्य का अर्थ पर- व्रात्य लोग व्रतो को मानत थे, अहंन्तो की उपासना मात्मा करते है ।२ प्रोर बलदेव उपाध्याय भी इसी अर्थ करते थे और प्राकृत भाषा बोलते थे। उनके साथ को स्वीकार करते है। किन्तु व्रात्य काण्ड का परिशीलन ब्रह्मग मूत्रो के अनुसार ब्रह्म ग पोर क्षत्रिय थे।" खात्यकरने पर प्रस्तुत कथन युक्तियुक्त प्रतीत नही होता। काण्ड में पूर्व ब्रह्मचारी को व्रात्य कहा गया है।" खात्य काण्ड में जो वर्णन है वह परमात्मा का नहीं अपितु निष्कर्ष यह है कि प्राचीन काल में व्रात्य शब्द का किसी देहधारी का है। मनि देवेन्द्र शास्त्री की मान्यता प्रयोग श्रमण सस्कृति के अनुयायी श्रमणो के लिए होता है कि उस व्यक्ति का नाम भगवान ऋपभदेव है, क्योकि रहा है। अथववेद के व्रात्य-काण्ड मे पक की भाषा मे ऋषभदेव एक वर्ष तक तपस्या मे स्थिर रहे थे। एक वर्ष ऋषभदेव का ही जीवन वर्णन किया गया है। ऋषभदेव
५७. व्रात्यान् व्रात्यता प्राचारहीनता प्राप्य प्रवसन्त: प्रवास ६४. स उदतिष्ठन् म प्राचीदिशमनुव्यचजत् । कुर्वतः। --ताण्डय ब्राह्मण सायण महाभाष्य
--प्रवर्ववेद १५।१।२।१ ५८. काचिद् विद्वत्तमं महाधिकार, पुण्यशील विश्वसमान्यं । ६५. स उदतिष्ठत् सः प्रतीचीदिशमनुष्यचलत् । ब्राह्मण विशिष्ट ब्रात्यमनुलक्ष्य वचनमिति मंतव्यम् ।।
-अथर्ववेद १५॥१॥२०१५ -अथर्ववेद १।१।१।१ सायण भाष्य
६६. स उदतिष्ठत् स उदीची दिशमनुष्य चलत् । अथर्ववेद ५६. अथर्ववेद १५३१११११
६७. दशवकालिक चूलिका--२ गा० ११ । ६०. व्रात्य भासीदीयमान एव स प्रजापति संमेरयत् ।
६८. विहार चरिया इसिण पसत्था । -प्रथर्ववेद
-दशर्वकालिक चुलिका २ गा०५ ६१. सः प्रजापतिः सुवर्णमात्पन्नपश्यन् ।
६६. वैदिक इण्डेक्स, दूसरी जिल्द १९५८, पृ० ३४३,
-प्रथर्ववेद १५२१११३ मेकडानल और कीथ ।। ६२. डा० सम्पूर्णानन्द-प्रथर्ववेदीय प्रात्यकाण्ड, पृ०१७..वैदिक कोष, वाराणसेय हिन्दू विश्वविद्यालय, १९६३, ६३. वैदिक साहित्य और संस्कृति, पृ० २२६
सूर्यकान्त ।