Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 183
________________ १८, वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त ने उसका निर्माण करके और उसे अपनी राजधानी बना- स्वरूप जन जीवन के प्रभ्युत्थान में वे प्रमुख भाग लेने मे कर उसे द्वितीय इन्द्रपूरी बना दिया था। साम्राज्य के समर्थ हुए। डा० अलेकर के मतानुमार, सार्वजनिक शिक्षा विभिन्न भागों मे जैनादि विभिन्न धर्मों के अनेक सुन्दर के क्षेत्र मे तो उनका सक्रिय योगदान सम्भवतया सर्वोपरि देवालय तथा धार्मिक, सांस्कृतिक एवं शिक्षा संस्थान था, जिसका एक प्रमाण यह है कि प्राज भी दक्षिण भारत स्थापित हा। इन धर्मायतनों एवं सस्थानो के निर्माण में बालको के शिक्षारम्भ के समय जब उन्हें वर्णमाला एवं सरक्षण में स्वय इन सभ्राटो ने, इनके सामन्त सर- सिखाई जाती है तो सर्वप्रथम उन्हें 'ॐ नमः सिदेभ्यः' दारों और राजकीय अधिकारियों ने तथा समृद्ध प्रजाजनों नाम का मगल सूत्र रटाया जाता है, न कि ब्राह्मण ने उदार अनुदान दिये। उस युग मे पच्चीसियों उद्भट परम्परा का श्री गणेशाय नमः । ॐ नमः सिद्धम्यः' विद्वानों ने प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रश और कन्नड की विशिष्टतया जैन मन्त्र है, हिन्दू, बौद्ध प्रादि अन्य धर्मों से विविध विषयक महत्वपूर्ण कृतियो से भारती के भडार उसका कोई सम्बन्ध नही है। इसी प्राधार पर डा० की प्रभत श्रीवद्धि की। विभिन्न धार्मिक सम्प्रदाय चिन्तामणि विनायक वैद्य ने भी यह कथन किया है कि मामाज्य में साथ-साथ फल-फूल रहे थे। उनके अनुयायी उस युग मे सार्वजनिक शिक्षा के क्षेत्र पर जैन शिक्षको ने विद्वानों में परस्पर मौखिक वाद-विवाद भी होते थे, ऐमा पूर्ण एवं व्यापक नियन्त्रण स्थापित कर लिया था बहुधा स्वयं सम्राट् की राजसभा मे ही, और साहित्य कि जैन धर्म की अवनति के उपरान्त भी हिन्दुजन अपने द्वारा भी खंडन-मडन होते थे, किन्तु ये वाद विवाद प्रौर बालको का शिक्षारम्भ उसी जैन मन्त्र से करते रहना खडन-मडन बौद्धिक स्तर से नीचे नहीं उतरते थे, उनमे वस्तुतः उत्तर भारत के अनेक भागो की प्राचीन पद्धति प्रायः कोई कटता नही होती थी और न विद्वेष या वैमनस्य की प्राथमिक पाठशालाप्रो (चटसालो मादि) मे भी भडकते थे: धामिक अत्याचार और बलात् धर्म परिवर्तन बालको का शिक्षारम्भ उसी जैन मन्त्र के विकृत रूप उस युग में अज्ञात थे। सभी सम्प्रदाय लोकहित, जन- 'प्रोना मासी घम' से होता पाया है, जिसका प्रथं भी जीवन के उत्थान और राष्ट्र के अभ्युदय मे यथाशक्ति प्रायः न पढ़ने वाले ही समझते है और न पढ़ाने वाले ही। सक्रिय सहयोग देते थे। इसी प्रकार, जैन व्याकरण 'कातन्त्र' का मगल सूत्र 'स्वय उपलब्ध प्रमाणाक्षरो से स्पष्ट है कि राष्ट्रकट सिद्ध. वर्णसमाम्नाय.' भी अपने विकृत रूप 'सरदा वरना साम्राज्य मे जैनधर्म की स्थिति पर्याप्त स्पृहणीय थी। मवा मनाया' में भाज भी पाठशालाओं में प्रचलित पाया उसे गज्य एव जनता, दोनो का ही प्रभूत प्रश्रय एव जाता है। सादर प्राप्त था। राष्ट्रकूट इतिहास के विशेषज्ञ डा. अतएव इस विषय मे सन्देह नहीं है कि उस काल मे अनन्त सदाशिव प्रत्तेकर के अनुसार, उस काल मे दक्षिणा- उस प्रदेश में ऐसे अनगिनत जैन सस्थान थे जो शिक्षा पथ की सम्पूर्ण जनसख्या का ही कम से कम तृतीयाश केन्द्रों के रूप में चल रहे थे और उनके कोई-कोई तो ऐसे जैन धर्मावलम्बी था। इस धर्म के अनुयायियो में प्राप. विशाल विद्यापीठ या ज्ञान केन्द्र थे जिनसे ज्ञान की किरणों सभी वर्गों, जातियो एव वगों का प्रतिनिधित्व था- चतुर्दिक प्रसरित होती थी। उनमे राज्यवश क स्त्री-पुरष भी थे, अनेक सामन्त-सरदार, प्रायः प्रत्येक वसति (जिनमदिर) से सम्बद्ध जो सेनापति और दण्डनायक भी थे, ब्रह्मण, पडित और पाटशाला होती थी उसमे धार्मिक एवं सतोषी वृत्ति के व्यापारी एक व्यवसायी भी थे, सैनिक और कृषक भी थे, जैन गृहस्थ शिक्षा देते थे जिनमे बहुधा गह-सेवी या गहमिपी कर्मकार और शुद्र भी थे। जैनाचार्यों ने भी इस त्यागी ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणियां प्रादि भी होते थे । मयोग का लाभ उठाकर स्वधर्म को राज्य एव समाज की क्षल्लक, ऐल्लक पोर निर्ग्रन्थ मनि भी जब-जब अपने प्रावश्यकताओं के अनुरूप ढालने मे मोर उसे सचेतन एव विहार काल में वहां निवास करते, विशेषकर वर्षावास प्रगतिशील बनाने में कोई कसर नहीं उठा रक्खी। फल. या चातुर्मास काल में, तो वे भी इस शिक्षण में योग देते

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