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६४, वर्ष ३१, कि०३.४
अनेकान्त
चिह्न
तीर्घङ्कर
१. जिनेन्द्र प्रतिमा की स्पन्दन रहित नेत्र दृष्टि तीन १८. श्री अरहनाथ
मत्स्य (मछली) वेदों (स्त्री, पुरुष, नपुंसक) के प्रभाव की ज्ञापक है। १९. श्री मल्लिनाथ
कलश
२. जिनेन्द्र प्रतिमा की नासा दृष्टि, बाह्य पदार्थों के २०. श्री मुनि सुव्रतनाथ
कछुवा प्रति ममत्व न होने का संकेत कराती है। २१. श्री नमिनाथ
नील कमल ३. जिनेन्द्र मूर्तियां निराभरण होती है जो भगवान् २२. श्री नेमिनाथ
शंख
में व्याप्त विरागता के अभिदर्शन कराती हैं। २३. श्री पार्श्वनाथ
सर्प
४. जिनेन्द्र विम्ब के भटि रहित होने से क्रोध का २४. श्री महावीर प्रभु
सिंह
अभाव भगवान मे दिखाई देता है। इनमे से ऋषभनाथ का दूसरा नाम आदिनाथ तथा
५. प्रक्षसूत्र (जनेऊ), जटामुकट और नर मुण्डमाला पुष्पदन्त का दूसरा नाम सुविधिनाथ और महावार के को न धारण करने से, मोह के न होने का सकेत मिलता है । दूसरे नाम वर्द्धमान, सन्मति, वीर, प्रतिबीर है।
६, जैन मूर्तियो के वस्त्र रहित होने से प्रतरंग मे भी जिनेन्द्र प्रतिमा अनेक लक्षणो से युक्त होती है तथा परिग्रह का प्रभाव दिखाई देता है। जनेतर मूर्ति से सर्वथा भिन्न हुआ करती है। निश्चय ही
७. जिनेन्द्र मूर्तिया कुटिल अवलोकन से रहित होती जन प्रतिमाये दूर से ही पहिचानी जा सकती है। जिनेन्द्र
है जो भगवान में ज्ञानावरण व दर्शनावरण के पूर्ण प्रभाव प्रतिमा खड्गासन या पद्मासन रूप मे सुन्दर-सस्थान वाली
की जानकारी देती है। दिगम्बर (नग्न) होती है। श्री वृक्ष लक्षण से भूषित वक्ष
८. जिनेन्द्र प्रतिमा निरायुध होती है जो क्रोध, मान, स्थल और उनक कुक्षि प्रादि अग रोम हीन होते है तथा
माया, लोभ नामक कषायो तथा जन्म, मरण और हिंसा म्छ व झुरियो आदि से रहित होत है।
के प्रभाव का सकेत कराती है। लक्षणो से सयुक्त भी प्रतिमा यदि नेत्र रहित हो या
६. जिनेन्द्र प्रतिमा के वक्षःस्थल पर श्री वृक्ष का चिह्न मुन्दी हुई आख वाली हो तो शास्त्रानुकूल नही मानी
स्व तथा पर के कल्याण का द्योतक है। जाती, इसलिए उनके नेत्र प्राधे खुले रखे जाते है, अर्थात्
जिनेन्द्र प्रतिमा के समीप मे अष्ट मंगल द्रव्य तथा न तो प्रत्यन्त मुन्दे हुए और न अत्यन्त फटे हुए। वे तो नितान्त अर्द्धमीलित होते है । ऊपर नीचे अथवा दाये-बायें
१०८ उपकरण-शृंगार, कलश, दपंण, चंवर, ध्वजा, उनकी दृष्टि नही होती है, अपितु नासाग्र प्रसन्न व निवि
वीजना, छत्र, सुप्रतिष्ठ, पात्री, शख, धूपनी, दीप कूर्च
पाटलिका, झाझ, मजीरा ग्रादि भी यथायोग्य विद्यमान कार मय उनकी दृष्टि दिखाई देती है। उनके मध्य भाग व अधोभाग भी वीतराग प्रदर्शक होते है।
तथा सुशोभित होते है। जिनेन्द्र प्रतिमानो के जो लक्षण अभी-अभी निरूपित यदि जिनेन्द्र प्रतिमा दोषयुक्त है तो उससे हानियाँ किए है, उनके पीछे उनका रहस्य अप्रकट रहता है, जब भी हो सकती है, जैसे दायी-बायी दृष्टि से अर्थ का कि इन लक्षणो की अपनी विशेषता है, ये तीर्थङ्करो के नाश, अधोदष्टि से भय तथा ऊर्ध्वदृष्टि से पुत्र व भार्या प्रच्छन्न गुणों को व्यक्त कराते है, जानकारी देते है। इन का मरण होता है। स्तब्धदष्टि से शोक, उद्वेग, सताप लक्षणो की सार्थकता इस प्रकार से है :
तथा धन का क्षय होता है। १. दैनिक जैन धर्मचर्या, अजितकुमार शास्त्री, प्रभाकर, ३. तिलोयपण्णत्ति, अधिकार संख्या ४, गाथा संख्य'
पृष्ठ ३७, द्वितीय सस्करण, १६५६, ४५३७, पहाड़ी १८७६-१८८०, प्रथम संस्करण, वि० स० १६१६, धीरज, दिल्ली।
जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर । १. धवला, पूस्तक संख्या ६, खंड संख्या ४, भाग १, ४. वसुनन्दि प्रतिष्ठा पाठ, परि० ४१, श्लोक न सूत्र ४४, पृष्ठ सल्या १०७, अमरावती।
७५-८०।