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४०, वर्ष ३१, कि०२
अनेकान्त
विहार'.बसन्तोत्सव', जल-क्रीडा, प्रादिमे सम्मलित होना अग्रेसर दिखाया गया है। नारियों की यह प्रवृत्ति कुछ नारी के साधारण कार्य थे। इन और ऐसे ही अन्य कार्यों प्रकृति और कुछ परिस्थितियो के कारण अपेक्षाकृत के चित्रण मे अपभ्रंश साहित्यकारो ने भी प्रचलित परम्पर। अधिक ही रही है और इसका चित्रण मी समस्त भारतीय का ही अनुसरण किया है। इस विषय मे उनकी कुछ साहित्य मे समान रूप से हुआ है। अपम्रश के साहित्यमौलिकता यदि होगी तो वह काव्यगत ही होगी, जीवन- कारों ने भी इसके अनेक उदाहरण सजोये है। नारियों मूल्यो की दृष्टि से वह उल्लेखनीय नही दिखती। ने एक ओर तो क्रमश. अभ्यास करते हुए यथाविधि जिन
दीक्षा ग्रहण की, दूसरी पोर समय-समय पर पर्वागधन, राजनीति और नारी
तपश्चरण, माघ-भक्ति, देवताराधन प्रादि मे भी एकाकी पभ्रश में नारी के राजनीतिक पक्ष पर अधिक प्रकाश या सामूहिक रूप से भाग लिया। इस सबमे जो नही पडता। साधारणतः, यहाँ भी नारी के कारण युद्ध विचारणीय विषय है वह है इन प्रवृतियों के मूल में सोनिखाये गये है। कैकेयी का राजनीति में प्रसिद्ध विद्यमान या अविद्यमान विवेक । वस्तुतः होता यह था हस्तक्षेप' प्रसगवश पउमचरिउ भी मे अया है। विशाखभूति कि भावना के एक क्षणिक पावेग में प्राकर पुरुषों की ही की पत्नी ने अपने पुत्र के लिए विश्वनन्दी से नन्दन वन भाति नारिया भी दीक्षा के लिए चल परती थी। पति के छीनने का प्राग्रह करके एक राजनीतिक सपं को जन्म साथ उसकी सहस्राधिक नारियो के दीक्षित होने के पीछे दिया। राजकुमार नागकूमार पर राजा जयन्धर ने नगर विवेक की सम्भावना नगण्य ही हो सकती है। विपत्तियो परिभ्रमण पर इसलिए रोक लगा दी क्योकि नगर की मे वैराग्य महज सम्भव है पर उसकी परिणति दीक्षा मे यवतियाँ उस पर मोहित हो जाया करती थी; इस रोक ही होनी, अनिवार्य नही। दीक्षा की मानसिक तैयारी, पर आपत्ति कर के राजकुमार की माता पृथ्वीदेवी ने एक पूर्वाभ्यास प्रादि के स्पष्ट विधान है और वे कठोर तथा राजनीतिक सामाजिक उथल-पुथल पैदा कर दी। वज्रा- अनिवार्य भी है, जिनका अपवाद केवल ऐसे विरल कृती या की कन्या लंकासून्दरी ने हनुमान स भीषण युद्ध मो टा ही न करके रण-कुशलता का परिचय दिया।
से मुनिपद के पूर्वाभ्यास मे व्यतीत हुआ होता है। दूसरी
मोर, राजसी राग रग मे प्राकण्ठ डूबी हुई हजारों धर्मपालन और व्रताचरण
रानियां उठकर वन की ओर चल पड़े', वह भी नारियों को साधारणतः धर्म-भीरु, व्रत-उपवास मे
अचानक ही विरक्त हो रहे अपने पति के साथ प्रांखें तत्पर, देव-देवियो और साधु-साध्वियो की पाराधना में
(शेष पृष्ठ ४७ पर)
(च) नरसेन . पूर्वोक्त, पृ. ३७, स. १, क. ३६ । (छ) नरसेन वही, पृ. ७७, स. २, क. २६ ।। १ विबह सिरिहर : पर्वोक्त, प ११, स १, क ८ । २ (क) वीर : पूर्वोक्त, प. ५६-५७, स. ३, क १२ १३ । (ख) वीर : पूर्वोक्त, ७८.८४, स ४, क १६-१६ । (ग) उदयचन्द्र : पूर्वोक्त, स. १. क. ३.४ । (घ) स्वयभ : पूर्वोक्त, वं. ४, पृ. २४७-२५३ स. ७१,
क. १.४ । (ड) उपपन, ग । २. पृ ६७ ६६, ग.
२६, क. ५-७। ३ (क) उपयुक्त. ख १ पृ. ६३, न १, क. १४ ।
(ख) उपर्युक्त, ग्व. १, पृ. २२१-२२७, स. १४, क. ३८ । (ग) उपर्युक्त, खं. १, पृ. १०७, म. २६, क. १४ १५ । (घ) उपर्युक्त, ख. ५, पृ. ११५, स.
७६, क ११ । ४. उपयुक्त, पृ० २७, ख. २. स. २२, क. ८ । ५. विवुह मिरिहर : उपर्युक्त, पृ. ५३, स. ३, क. ६ । ६ पपदन्त : णायकुमारचरिउ, नई दिल्ली १६७२,
पृ ४७ स. १०,६। ७ स्वयंभू : पूर्वोश्त पृ. १०१-७१०, ख. ३, स. ४८,
८ उपर्युक्त : पृ० ८७, ख. ५, स. ७८, क. ५।