Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 55
________________ अनेकान्त इस साखी को लिखते समय । एक दूसरी साखी में कबीर में कहा तीन लोक भी पींजरा, पाप पुण्य भी जाल । हंसा तू तो सबल था, हलुकी अपनी चाल । सकल जीव सावज भये, एक महेरी काल ।। रग कुरगे रंगिया, ते किया पौर लगबार।। अर्थात् संसार की चौरासी लाख योनियों के कारागृह मे हे मानव ! तू तो शक्तिमान ईश्वर जैसा घवल पाप और पुण्य बेड़ियां है। सजा देने वाला कालचक्र स्वच्छ है, अर्थात कर्म-कालिमा से रहित है। फिर भी तुने अथवा मृत्यु इस जीव के पीछे प्रत्येक समय लगा रहता अपनी उस शक्ति पर एक दृष्टि नही दी और निकृष्ट है। प्राचरणों में गिरकर तया स्वयं को कम कालिमा से लिप्त । ४. शरणागत : एक से कर अपने को रग-विरंगा बना लिया है । इस प्रकार, स्वयं के प्रज्ञान ने तुझे स्वामी से दास बना दिया है। भ० महावीर ने ससारी जीवो को सम्बोधते हुए कहा है-'संसार में जरा और मरण के तीव्र प्रवाह में ३. कर्म-वेड़ियों का विनाश डूबते प्राणियों को धर्म ही एक शरण है, प्रतिष्ठा है, गति भ० महावीर ने इस कर्म-कालिमा का कारण जीव है। तुम स्वयं अपने दोपन हो। अपनी ही ज्योति में की बहिष्टि बताया है। जीव की प्रासक्तिपूर्ण या मूर्छा- अपने को देखो। स्व के प्रति जागो। स्वानुभति के अलावा सहित त्रियाये ही कमरूप सूक्ष्म शरीर मे परिणत होकर और कोई शरण नहीं। ससार मे ऐसा कोई प्रभु नहीं नये कर्मों से गठबन्धन करती रहती है । कबीर ने इसे उस है जो तुम्हारी अंगुली पकड़ कर तुम्हे भवसागर पार सचित बीज का रूप दिया जो योग्य भूमि और काल मे करा दे।' इन्ही भावो को कबीर ने बड़े सहज ढग से पड़कर कई गुनी फसल प्राप्त करके बढ़ता जाता है। कहा : परन्तु यदि यही जीव अन्तर्दृष्टि प्राप्त करके अपने चैतन्य जो तू चाहे मुझको, छोड़ सकल की मास । स्वभाव को मूर्छा से तोड़कर एक तटस्थ भाव में पा मुझ ही ऐसा होय रहो, सब सुख तेरे पास ॥ जाये तो वह अपने कर्मों को जजरित कर सकता है, पराश्रय बुद्धि से जीव अज्ञान के गहन अन्धकार में डूबा जैसे भुंजे हुए बीज मे उसकी मौलिकता समाप्त हो जाती। है। इस प्रज्ञान के घूघट को ऊपर उठाने के लिए एक है और वह नये अकुरण नही कर सकता। कबीर ने इसे । जगह महात्मा कबीर लिखते है : इस प्रकार कहा: तोहि पीय मिलेंगे, चूंघट का पट खोल री। एक कर्म है बावना, उपज बीज बहूत । घट घट में वहि स्वामी रमता, कटुक वचन मत बोल री। एक कर्म है भुंजना, उदय न अकुर सूत ।।। बाहर प्राप भूल गई सजनी, पियो विषय रस घोल री। इस प्रकार, जीव की बहिबुद्धि उसके ससार-भ्रमण घन यौवन को गर्व न कीजे, झूठो पचरंग चोल री। का कारण बनी हुई है। एक भोर जहां वह पुण्य के फल का भात्मविस्मृति के मूल्य पर भोग कर उन्हे अपना वस्तुतः मज्ञान पर्दे को हटाने से हो सम्यक् दृष्टि प्राप्त स्वरूप ही समझ बैठता है, वहीं दूसरी पोर दुखमूलक होती है और घट-घट में व्याप्य मात्मा के सहज दर्शन हो पापरूप सततियो से वह विपन्न होता है और उनसे उपरत सकते है। भ० महावीर ने विषय वासनामों को मीठा भी होना चाहता है। परन्तु शिवस्व की प्राप्ति मे कर्मों जहर कहा है जिसे पीकर जीव अपने कालिक स्वभाव की गुरुता से निर्धार होने के लिए ये दोनों जीव की को भला बैठा है और धन, यौवन जैसे बीच के क्षणिक मदृश्य बेड़िया है, जो जीव को कालचक्र के नीचे घसीट सयोगों में ही अपनत्व बुद्धि कर अपने ऊपर झूठे मुखौटे ले जाती है । इन्हीं भावों को कबीर ने कितने सरस रूप पोहए है। महावीर स्वामी का संदेश इस विषय राग

Loading...

Page Navigation
1 ... 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223