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इस समय स्त्री जाति का समाज में कोई स्वतन्त्र प्रचलित हो रहा है, वह पाश्चात्य देशों की देन नही है। स्थान नहीं था। स्त्रियां पुरुषों की इच्छा के अनुसार हमारे देश मे प्राचीन काल मे मुष्टियुद्ध का माम रिवाज उनके उपभोग के लिए उपकरण मात्र थी। स्त्रियों को था। श्री कृष्ण प्रौर बलभद्र ने चाणर और मष्टिक पहल.
वान को मुष्टियुद्ध से ही पराजित किया था (३६/४५)। हरिवंशकालीन व्यक्ति का जीवन सभ्य और सुसज्जित प्राथिक जीवन था। वह विविध परिधानो द्वारा शरीर का प्रलकरण पाथिक दृष्टि से भी भारतवर्ष सम्पन्न था। कृषि, करता था। उसके वस्त्रो मे वासस, उपवासस नीवि, पशुपालन, व्यापार, वाणिज्य मोर कला-कौशल में भी यह कम्बल आदि प्रमख थे।" प्राभूषणों मे मुकुट, कुण्डल, देश काफी प्रगति कर चुका था। पान्तरिक व्यापार केयुर, चूडामणि, कटक, कंकण, मुद्रिका, हार, मेखला,
के साथ ही विदेशो से जलपोतो के द्वारा व्यापार होता कटिमूत्र, कटक, रत्नावली, नपुर प्रादि का प्रचलन था था। यहा से कपास और बहुमूल्य रत्नादि का व्यापार (८/२६), प्रसाधन सामग्रियो भी अनेक थी। साधारण किया जाता था। दूर देशों या विदेशों से व्यापार के लिए से लेकर बहुमूल्य सामग्रिया व्यवहुत होती थी । चन्दन," कई व्यापारी समूह मे जाते थे और मार्ग दिखाने के लिए ककुम, अंगराग, पालक्त क, प्रजन, शतपाक, तेल, गध, सार्थ होते थे। सार्थों को मार्ग का पूरा ज्ञान होता था। प्रादि अनेक सुगन्धित द्रव्य मिश्रित लेप सिन्दूर, कस्तूरी, सार्थ सम्पन्न भी होते थे। वे व्यापारियों को निश्चित शुल्क माला, ताम्बल प्रादि के प्रयोग का उल्लेख मिलता है या भागीदारी के पाभार पर ऋण भी देते थे। सायों के (८वा मर्ग)। वृद्धाय प्राय: त्रिपुण्डाकार तिलक लगाती प्रपने पान, वाहन, चालक, वाहक, रक्षक मादि भी होते थी (२२/४७)।
थे । प्राचीन भारत में सार्थों की भूमिका की विशेष जान. समाज में शाकाहारी और मासाहारी दोनो ही तरह के कारी डा. मोतीचन्द्र की पुस्तक 'सार्थवाह' से मिलती है। भोजन भोज्य होते थे। शाकाहारी भोजन मे जो, धान,
व्यापार मे लेने देने के लिए निष्क, शतमान, गेहू, तेल, शाक, उडद, मूग आदि मुख्य थे ।" पशुओं का कार्षापण प्रादि का व्यापार था। मुद्रापों पर जनपद मास मांसाहारियो के लिए भोजन में सम्मिलित होता श्रेणी प्रथवा धार्मिक चिह्न हुमा करते थे । वाणिज्यथा। पेय पदार्थों मे दूध, सुरा, मधु" आदि उल्लेखनीय व्यापार पर राजकीय नियत्रण नही था । कर भाग भी माय है। भोजन करने के बाद सुगन्धि द्रव्यों से मिश्रित पानी के दसवे से छठे भाग तक सीमित था। विशेष परिस्थिसे कूरला किया जाता था। बाद मे पान-सुपारी तियो मे युद्ध, दुभिक्ष प्रादि" के समय यह अवश्य ध्यान खिलाई जाती थी। पान को थकने के लिये पीकदान भी
रखा जाता था कि कोई अनुचित लाभ न ले सके । जंगलों, रखा रहता था। महाकवि वाण को कादम्बरी और हर्ष चरित में भी इनके उल्लेख प्राप्त होते है।
दुर्गम स्थानो मे कही-कही दस्युदल भी सक्रिय होते थे।
प्रोर अपराध बहुत कम होते थे। विधाम के लिए शय्या (प्रासन्दी), उपधान, पर्यकादि
धामिक जीवन हुप्रा करते थे । मनोरंजन के लिए नाटक, गीत, वाय,
यदि धर्म मौर विश्वास जाति या समाज की चित्रकला, द्यत-क्रोडा", वनविहार"जलको डा" प्रादि का उत्कृष्टता का द्योतक है तो हरिवशपूराण एक ऐसे व्यक्ति प्रमखता से प्रचलन था। विशेष अवसरों पर अनेक के धार्मिक जीवन का चित्र प्रस्तुत करता है जो तपः सामूहिक महोत्सव भी होते थे।
प्रधान था। इस युग में प्राचीन धार्मिक परम्पगये टूट उन दिनों भी व्यायाम करने की प्रक्रिया प्राज जैसी रही थी। बलि, यज्ञादि क्रियाकाण्डों का स्थान भक्ति, ही थी। गोलाकार अवाडा होता था जिममे पहलवान उपासना, सत्कर्म और सदाचार ने लिया था। जैन, बौद्ध लोग अपने-अपने दावपेंच दिग्वाते थे । इस ग्रन्थ को देखने और वैदिक तीनो सस्कृतिया साथ-साथ चल रही थी। से यह भी पता चलता है कि प्राजकल जो यह मुष्टियुद्ध
(शेष पृ० ६२ पर) १८. हरिवशपुराण, २६७ १७, ५॥१८-३८ । १६. हरिवशपुराण, २५।३०। २०. हरिवंशपुराण, ४७४२ । २१ हरिवशपुराण, १८११७१, १११११६, ३६।२७-२८, १८।१६१-१६३ । २२. हरिवंशपुराण, २१११०४.११० । २३. हग्विशपुगण, १८११७१।।
२४. हरिवशपुराण, ६१.२३, ६१.५१, ६११३६, ६११२५ । २५ हरिवशपुगण, ३६.२७-२८ ।
२६. हरिवशपुराण, ८.५० । २७ - हरिवशपुराण, ४८।१४, ४६३, २११५४-६२ ।
२६. हरिवणपुराण. ५२।२६, १४॥१॥ २६ हरिवश गण, ५॥५१-५५ । ३० हरियापुराण, २४१८, ११ , ३६४१-४३ । ३१. हरिवशपुराण, २११७६।