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आदर्श समाज नेता
श्री वंशीधर शास्त्री एम. ए., जयपुर
मादरणीय साह शान्तिप्रमाद जी की स्मृति हमे उस वोतराग दिगम्बर धर्म का प्रश्न है, भले ही जलम न महान मात्मा का स्मरण कराती है जिन्होंने अपने प्रथक निकले, किन्तु दिगम्बर साधुप्रो के प्रवेश की निषेधाज्ञा को श्रम व दूरदर्शिता से बड़े-बड़े उद्योगों का संचानन ही हमें स्वीकार नहीं करना चाहिए। पुलिस अधिकारियों नहीं किया, अपितु भारतीय साहित्य, संस्कृति के गौरव ने ऐसी निषेधाज्ञा बिना जलस के लिए स्वीकृति देने से को बढ़ाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । वे कोटपा- इन्कार कर दिया। अन्त मे साह जी के व्यक्तिगत उच्चघीश होते हुए भी समाज, संस्कृति एवं धर्म सस्थानों के स्तरीय प्रयत्नों से मुनिप्रवेश के निषेध बिना ही रथयात्रा लिए साधारण कार्यकर्ता बन जाते थे।
की स्वीकृति मिल गई। वे समाज के उत्थान के लिए सतत जागरूक रहते साह जी ने साहित्य के सरक्षण, संवर्द्धन के लिए थे। वे समाज की मान-मर्यादा को उच्च स्तर पर रखना भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना तो की ही, साथ ही साहिचाहते थे । सन १९६० में कलकत्ता पुलिस ने वहाँ के त्यकारी को प्रोत्साहित करने के लिए भारत का नोबिल प्रसिद्ध रथ यात्रा जलस के लिए नग्न साधु के प्रवेश की
पुरस्कार-'ज्ञानपीठ पुरस्कार-की स्थायी योजना बनाई। निषेधाज्ञा युक्त स्वीकृति देनी चाही थी। समाज के अनेक
मेरा ज्ञानपीठ के वर्तमान पदाधिकारियों से निवेदन है प्रमख व्यक्तियों ने यह कह कर ऐसी स्वीकृति के लिए
कि वे इस पुरस्कार का नाम 'शातिप्रमाद जैन पुरस्कार' हाँ करना चाहा था कि अभी वहा मुनि नही है, अतः
घोषित कर उनकी स्मृति को चिरस्थायी बनावे । ऐसी निषेधाज्ञा मान कर जुलूस की स्वीकृति ले लेनी
साहू जी जैन तीर्थों के जीर्णोद्धार के लिए सर्वदा चाहिए। लेकिन साह जी जैसे स्वाभिमानी के लिए ऐसा
चिन्तित रहे। उन्होंने अनेक तीर्थो के विकास के लिए सब तकं स्वीकार्य नही था । उन्होने स्पष्ट कहा कि यह किसी
प्रका• का सहयोग दिया। उनकी यह विशेषता अनुकरव्यक्ति के भी होने या न होने का प्रश्न नहीं है, यह
णीय है कि उन्होने हजारों, लाखो रुपए का दान कर भी ज्योतिर्मय व्यक्तित्व
कभी अपना नाम लिखाने छपाने की चिन्ता नही की।
वे समाज की फूट एवं संघर्ष में व्यथित रहते थे। संस्कृति क्षितिज का ज्योतिर्मय,
उनका हमेशा यही प्रयास रहना था कि ममाज मे एकता एक नखत ज्यों टूट गया।
रहे, ताकि समाज अपने धानिक प्रायतनो की रक्षा करता संस्कृति सरगम का ज्यों कोई,
हमा राष्ट्र की गतिविधियो में अपना समुचित स्थान ___ मरिम स्वर ज्यों टूट गया ।।
प्राप्त कर सके। समाज में एकता का स्थायी रूप बना साहित्य, संस्कृति को जिसने --
रहे, इसके लिए हम सब प्रयत्न करें यही हमारी उनके प्रति क्षण सजीवनी दी:
प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। एकता होने से ही गमाज वह दानी कर्ण, श्रमण -
अपनी सर्वतोमवी प्रगति कर सकेगा, अन्यथा नही। संस्कृति का, असमय रूठ गया। --श्री मिश्रीलाल जैन, एडवोकेट
११५. चाणक्य मार्ग, सुभाष चौक, पृथ्वीराज मार्ग, गुना (म० प्र०) |
जयपुर (राजस्थान)