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जैन साधु की चर्या
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णमन होने से ज्ञानस्वरूप है और क्रोधादि भावकम, द्रव्य- पर: स्वरूपलीनता के पनुपम सुख को प्राप्त कगे। इस कर्न एवं नोकर्म सभी पुदगल द्रव्य के परिणाम होने से भेद-विज्ञान से ज्ञानभाव और राग की सूक्ष्म अन्तःसधि जड़ है । इनकी पाज तक वास्तविक पहचान नही हुई। स्पष्ट रूप से प्रतिभासित हो जाती है और निजात्मा मे इसीलिये ससार में भटक रहे हैं। काललब्धि के वश गुरु प्रतीत होने वाली ज्ञान और रागादि भावो की एकता दूर के सम्यक् उपदेश के निमित्त से मिथ्यात्वादि प्रकृतियों के हो जाती है। भेद-विज्ञान का माहात्म्य यह है कि यदि उपशम, क्षय या क्षयोपशम से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति जीव निरन्तर उसका अभ्यास करता रहे, कभी भेदहोते ही स्व-पर भेद-विज्ञान प्रकट हो जाता है और तभी विज्ञान की धारा न टूटे तो भेद-विज्ञान के बल सं ध्र व, प्रात्मा अपने स्वरूप को पहचान लेती है। स्वात्मतत्त्व शुद्ध प्रात्मा का अनुभव करता हुमा प्रवत होता है। इतना की रुचि को प्राप्त हुमा जीव ही संयोगी दशा में भी पर. ही नहीं, प्रकाशमान पनी प्रात्मा को पर द्रव्य से उत्पन्न द्रव्य से भिन्न निज तत्त्व की प्रतीति कर सकता है। विकारी परिणति को भी दूर कर शुद्ध रूप में स्वय को
जैसे दो जुडी हुई वस्तुनों को अलग-अलग करने के प्राप्त कर लेता है। यह सुनिश्चित है कि भेद-विज्ञान से लिए मिस्त्री सन्धि के स्थान पर छ नी मार कर या करोंत ही निज शुढात्मा की उपलब्धि होती है। चलाकर कुशलता के साथ उन दोनों को पृथक् पृथक् कर वास्तव में भेद-विज्ञान में निमित्त निमित्त रूप में, देता है, वैसे ही सम्यक्त्व के सन्मुख ससारी जीव ज्ञान. उपादान उपादान रूप में, साधन साधन रूप में मोर साध्य रूपी करोत के अभ्यास से कुशलता के साथ लक्षण भेद साध्य रूप में, जो जैसा हो वैसा ही उद्भासित होने लगता का ज्ञान होने से जीव और अजीव को भिन्न- है। जब तक जीव को हेय-उपादेय का बीध नही होता भिन्न कर जानता है। रागादिक भावो की भिन्नता के
है, तब तक यह हेय को त्यागकर उपादेय को ग्रहण नही साथ ही चैतन्य रम से निर्मर ज्ञायक प्रात्मा तत्काल ऐसा
करता । भेद-विज्ञान होने पर सभी राग-रगो की हेयता प्रकाशित हो जाता है, जैसे कि खान में से निकला हमा
का बोध हो जाता है, इसलिए जीव उन सबको छोड़कर मोना सोलह बानी ताव पर चढ़ कर अपने उज्ज्वल स्वरूप में चमचमाने लगता है।
निज शुद्धात्म-स्वभाव का पालम्बन लेता है। यही भेद.
विज्ञान को उपयोगिता है। भेद-विज्ञान करोत को तीक्ष्ण धारा के समान कहा गया है। जैसे करोत लकड़ी के टुकड़े-टुकड़े कर डालती
पाच महाव्रत, समिति, इन्द्रियनिरोध, लोच, छह प्रावहै, उसी प्रकार भेद-विज्ञान भी ज्ञान और र गादि विकार २५
श्यक, प्रचेलस, प्रस्नान, भूमिशयन, अदन्तधावन, खडे होकर इन दोनो को अपनी मन्तदष्टि रूपी तीक्ष्ण पार के द्वारा भोजन तथा एक बार माहार, ये श्रमण के प्राइस मूल परस्पर में या पूर्ण प से पथक पथक करके, यह निमंज गुण जिनवरो ने कहे है। यथार्थ में सभी प्रकार के भेद-विज्ञान, जो स्वय शुद्ध चैतन्य का ठोस पिण्ड है, पर व्यापारी से मुक्त सम्यग्दर्श, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र तथा के सयोग से रहित निज स्वरूप में लीन हो जाता है। सम्यक तप में अनुरक्त निग्रन्थ एव निर्मोह साधु होत है।'
१. चंदृष्य जरूपतां च दधतोः कृत्वा विभाग द्वयो
रमतरुणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च । भेदज्ञानमुदेति निर्मलमिद मोदध्वमध्यासिता: शुद्धज्ञानघनौधमेकमधुना सन्तो द्वितीयच्युताः ।।
सगयासारकलश, श्लो० १२६ २. यदि कथमपि धाराराहिना बोधनेन
धूवमुपलभमान: शुद्धमात्मानमास्ते ।
तदयमुदय द्वात्माराममात्मानमात्मा परपरणतिरोधाच्छुद्ध मेवाभ्युपैति ॥ वही, १५७. ३. प्रवचन सार, गा० २०८-२०६. ४. वावार विपकका च रविहाराहणासयारता । णिग्गंथा णिम्मोहा साह एदेरिसा होति ।।
-मियमसार, गा० ७५