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जैन देवकुल में यक्षी चक्रेश्वरी
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केवल जैन यक्षो चक्रेश्वरी के निरूपण तक ही सीमित नही किया गया है। चतुर्भजा यक्षी को दो भुजामों मे पक्र रहा है । २४ यक्ष एवं यक्षियों की सूची में से अधिकाश और अन्य दो मे फल एवं वरदमुद्रा के प्रदर्शन का विधान के नामो एव लाक्षणिक विशेषतामो को जनो ने हिन्दू और है। द्वादशभुज यक्षी की पाठ भुजामों में चक्र, दो में वज्र कुछ उदाहरणों मे बौद्ध देवों से ग्रहण किया था। हिन्दू देवकुल एवं अन्य दो मे फल एव वरदमुद्रा प्रदर्शित होगी। विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र, स्कन्द, कातिकय, काली, गौरी, वामे चक्रेश्वरी देवी स्थाप्यद्वादशसभुजा। सरस्वती, चामुण्डा मोर बौद्ध देवकुल की तारा, वज. धत्ते हस्तये बजे चक्राणी च तथाष्टम् ।। शृखला, वचतारा एव वजा कुशी के नामो घोर लाक्ष- एकेन बीजपूरं तु वरवा कमलासना। णिक विशेषताओं को जैन धर्म में ग्रहण किया गया । जैन चतुर्भूजाथवाचकं द्वयोर्गडवाहनं ।। देवकुल के गरुड़, वरुण, कुमार यक्षो, पोर अम्बिका,
-प्रतिष्ठासारसंग्रह : ५, १५-१६ । पद्मावती, ब्रह्माणी यक्षियों के नाम हिन्दू देवकुल स ग्रहण तात्रिक अथो में चक्रेश्वरी के भयावह स्वरूप का उल्लेख किये गए, पर उनकी लाक्षणिक विशषताए स्वतन्त्र थी। है। ऐमे स्वरूप में तीन नेत्रो एव भयकर दर्शनवाली यक्षी दूसरी पार ब्रह्मा, ईश्वर, गामुख, भृकुटि, षण्मुख, यक्षेन्द्र, चक, पद्म, फल एव बज से युक्त है। दक्षिण भारतीय श्वेतापाताल, धरणन्द्र, कुबेर यक्षो और चक्रेश्वरी, विजया, म्बर परम्परा में गरुडवाहगा चश्वरी को द्वादशभुज बताया निर्वाणी, काली, महाकाली, तारा, वज्रशृखला यक्षिया गया है, जबकि दिगम्बर परम्परा में यक्षी षोडशभुज के नामो एव लाक्षणिक विशेषतामा दानो को हिन्दू दव- है। भ जाग्रो के प्रायुधों के सन्दर्भ में उत्तर भारतीय परकूल स प्रहण किया गया था । यक्ष-यक्षियो के अतिरिक्त म्परा का ही अनुकरण किया गया है। जैन देवकुल के गम, कृष्ण, बलराम, महाविद्या,
मूर्त प्रकनों में चक्रेश्वरी सरस्वती, लक्ष्मी, गणश, नंगमषिन्, भरव एव क्षत्रपाल मतं प्रकनो म किरीटमुकुट से शाभित चक्रेश्वरी को प्रादि दवा का भी हिन्दू देवकुल स ही ग्रहण किया गया सदैव मानव रूप में उत्कीर्ण गरुड़ पर पारूढ़ प्रदर्शित था।
किया गया है । यक्षी की भुजाओ में चक्र के साथ ही गदा प्रामाशास्त्रीय ग्रयो र चक्रवरी
और शख का नियमित चित्रण हुमा है। केवल उड़ीसा से श्नताम्बर परम्परा में चक्रश्वरी का अष्टभुज और प्राप्त चक्रेश्वरी मूर्तियो मे गदा और शंख के स्थान पर दिगम्बर परम्परा में चनुभुज एव द्वादशभुज निरूपित खड्ग, खटक एवं वच का प्रदर्शन प्राप्त होता है। यक्षी की किया गया है । दानो ही परम्परामा म गरुड़वाहन चक. एक भुजा से सामान्यतः वरदमुद्रा (या प्रभय मुद्रा) प्रदशित श्वरी के करो में चक्र एव वध क प्रदशन क सन्दभ म है। देवी अधिकाशतः एक पैर नीचे लटकाकर ललित मुद्रा समानता प्राप्त होती है । श्वेताम्बर ग्रन्य निर्वाणकाला में प्रासीन है। तीर्थकर ऋषभनाथ की मूर्तिया क सिंहासन (१०वी शता) क अनुमार यक्षी दक्षिण भुजामा म वरद- छारो पर चक्रेश्वरी का अकन जहाँ पाठवी शती ई० मे मुद्रा, वाण, चक्र, पाश और वाम म घनुष, वन, चक्र, ही प्रारम्भ हो गया, वही यक्षी की स्वतन्त्र मूर्तिया नवी म कुश धारण करती है।
शती ई० मे बनीं । श्वेताम्बर स्थलो पर परम्परा के विप__"प्रप्रतिचक्राभिधाना यक्षिणी
गत चक्रेश्वरी का केवल चतुर्भुज स्वरूप में निरूपण ही हेमवर्णा गरुड़वाहनामष्टभुजां।
लोकप्रिय रहा है। पर दिगम्बर स्थलो पर चक्रेश्वरी वरदवाणचक्रपाशयुक्तदक्षिणकगं
की द्विभुज से विशतिमुज मूतिया बनी। चक्रेश्वरी की धनुर्वनचक्राकुशवामहस्तां चेति ॥" मूर्तियो क विकास की दृष्टि से दिगम्बर स्थलों की मतियां
--निर्वाणकलिका : १८१॥ महत्वपूर्ण रही है। राजस्थान एवं गुजरात से श्वेताम्बर दिगम्बर ग्रंथ प्रतिष्ठासारसंग्रह (१२वी शती) मे और अन्य क्षेत्रो से दिगम्बर परम्परा की मूर्तिया प्राप्त परवरी का चतुर्भुज एवं द्वादशभुज स्वरूपो में ध्यान होती हैं। दक्षिण भारत की मूर्तियो में गरुड़वाहन का