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श्रमण संस्कृति की प्राचीनता : पुरातत्व और ऐतिहासिक
परिप्रेक्ष्य में
डा. प्रेमचन्द जैन, एम ए., पी-एच डी. जैन, दर्शनाचार्य, जयपुर किसी धर्म की श्रेष्ठता उसकी प्राचीनता अथवा मानकर प्रत्येक वस्तु के इतिहास को पीछे की ओर उसके अर्वाचीनता पर अनिवार्यतः निर्भर नहीं होती, किन्तु यदि उदगम स्थान या उदय काल तक खोजते चला जाना है। कोई धार्मिक परम्परा प्राचीन होने के साथ-साथ मुदीर्घ तथ्य प्रमाणसिद्ध होते जाते है और प्रतीत में जितनी काल पर्यन्त मजीव. सक्रिप, प्रेरक एवं प्रगतिवान् बनी दूः तक निश्चित रूप से ले जाते प्रतीत होते है वही रहती है और लोक की उन्नति, नैतिक वृद्धि तथा सास्कृ.उ.का अथवा उनकी ऐतिहासिकता का ग्रादिकाल निश्चित तिक समृद्धि मे प्रबल प्रेरक एव सहायक सिद्ध हुई होती है क दिया जाता है। प्रब जन-संस्कृति को प्रापेक्षिक तो उसकी वह प्राचीनता जितनी अधिक होती है वह प्रावीनता के कतिपय प्रमुख प्रमाण प्रस्तुत किये जाते है। उतनी ही अधिक उम धर्म के स्थायी महन्त्र एवं ? 'मोहनजोदड़ो और हडप्पा" के अवशेषों से पुरातत्व. निहित सर्वकालीन एव सार्वभौमिक तत्वो की सूचक होती वेतानों ने यह सिद्ध कर दिया है कि पार्यो के कथित है। इसके अतिरिक्त किसी भी सस्कृति के उद्भव भारत प्रागमन के पूर्व यहा एक समृद्ध सस्कृति और एवं विकास का सम्यक ज्ञान प्राप्त करने तथा उसकी सभ्यता थी। उस मंस्कृति के मानने वाले मानव सुसभ्य, देनो का उचित मूल्यांकन करने के लिए भी उसकी सुसस्कृत और कनाविद् ही नहीं थे अपितु प्रात्मविद्या के अाधारभूत धार्मिक परम्परा की प्राचीनता का अन्वेषण भी प्रकाण्ड पण्डित थे। पुरातत्वविदो के अनुसार जो आवश्यक हो जाता है।
अवशेष मिले है उनका सीधा सम्बन्ध जैन सस्कृति से है। प्रश्न किया जा सकता है कि जैन संस्कृति की प्राची. मग मूलर, मकडानल तथा अन्य पाश्चात्य विद्वानों नता मे शका करने की अथवा उस अत्यन्त प्राचीन मिद्ध की गवेषणायो ने यह तो सर्वसम्मत रूप से प्रमाणित करने की आवश्यकता ही क्यो हुई? स्वयं जैनो की कर दिया है कि किमी युग मे उतरी क्षेत्रो से बहुत बड़ी परम्परा अनुश्रुति तो सुदूर अतीत मे, जब से भी वह
संख्या में प्रार्य लोग भारतवर्ष में पाये। उनकी अपनी मिलनी प्रारम्भ होती है निर्विवाद एव सहजरूप मे उसे
एक व्यवस्थित सभ्यता थी। सर्वप्राचीन संस्कृति मानती ही चली पाती है और बौद्ध
वैदिक-साहित्य से भी यह तथ्य प्रगट होता है कि अनुश्रुतिया ही नही ब्राह्मणीय अनुश्रुतिया भी अत्यन्त वैदिक आर्य-गण लघ एशिया और मध्य एशिया देशों से प्राचीन काल से जैन धर्म को स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करती होते हुए श्रेता युग के प्रादि में इलावत और उत्तर पश्चिम चली पाती हैं । अतएव जैन संस्कृति की प्राचीनता सिद्ध के द्वार से पजाब में पाये। उम गमय के पूर्व से ही द्रविड़ करने की कोई आवश्यकता नही है किन्तु अाधुनिक लोग गधार से विदेह तक तथा पाचाल से दक्षिण मध्यप्राच्यविदो एवं इतिहासकारों ने जब भारतीय इति- देश तफ अनेक वर्गों में विभक्त होकर निवास कर रहे थे। हास, समाज, धर्म, संस्कृति, साहित्य, कला आदि का इनकी गम्यता पूर्ण विकसित थी । इनका लोकिक अध्ययन प्रारम्भ किया तो उन्होंने उस प्राधुनिक ऐति- जीवन भी पूर्णतः सुव्यवस्थित था। कृषि, पशुपालन, हासिक पद्धति को अपनाया जिस में वर्तमान को स्थिर वाणिज्य एवं शिल्प कला इनके जीवन के मुख्य सापन थे।