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६४, वर्ष ११, कि० ३-४
भनेका
भारत वर्ष भरतात् सुमतिस्तवभूत् ।" (पग्नि पुराण थे जिन्हें जन्म देकर यह देश धन्य हो गया। उनके जाति प्र० १०७।११.१२) । श्री ऋषभदेव ने रानी मरुदेवी के के रूप यह 'भजनाभवर्ष' और हिमवर्ष से भारतवर्ष कहगर्म से जन्म लिया, और उनके पुत्र श्री 'भरत हुए; उन्हीं लाने लगा और अब इसी नाम से प्रख्यात है। के नाम पर इस वर्ष (देश) का नाम भारतवर्ष कहलाकर श्रीमद्भागवत् के मंत्र (५१४१४२) मे महाप्रतापी प्रख्यात हुमा है।
महाराजा भरत के सम्बन्ध में वर्णित है कि-"जैसे गरुड़ 'भरत' महाराज के पुत्र "सुमति" थे। "वर्षोऽयं भारतो से कोई भी पक्षी होड़ नहीं कर सकता, वैसे हो राजषि भरत नाम यत्रयं भारती प्रजा, भरणाच्य प्रजानां वैमनुर्भरत के पथ का अनुसरण भी अन्य कोई राजा नहीं कर सकते। उच्यते, निरुक्त-वचनाच्चैव वर्ष नद्भारतं म्मृतम् ॥” (वा. महाराजा 'भरत' का वंशानु कम "स्वायंभुव मनु" के पु. ४५.१७६)। यह देश भारतवष है और यहां की प्रजा पुत्र महाराजा "प्रियव्रत' से सभी पुराणों में कथित हैभारती है। प्रजा का भरण-पोषण करने मे 'मनु' को 'भरत' प्रियव्रत के प्रागिन्ध्र, ग्रान्ध्रि के नाभि, नाभि के ऋषभ कहा गया है। निरुक्त के अनुसार, उस भरत का जो पौर ऋषभ के पत्र 'भरत' महाराज थे। देश है, वही भारतवर्ष है। मत्स्य-पुराण में भी यही इलोक प्रियव्रतो नाम सुतो मनो स्वयंभुवम्य च, है (११४४५) । ब्रह्माण्डपुराण एव लिगपुराण (१।४७४२४)
तस्यागन्ध्रिम्ततोनाभिऋषभस्य सुतस्ततः । का भी यही अभिमत है।
अवतीर्ण पुत्रशत तस्यासदिब्रह्मपारगम्, इस भू-खण का नाम भारतवर्ष पड़ने से पूर्व प्रजनाभ
तेषा व भरती ज्येष्ठो नारायणपरायणः । वर्ष पोर हिमवर्ष प्रचलित था। (भा० ५७.३ तथा विख्यात वर्ष मेतन् नाम्ना भारतमुत्तमम् ॥ विष्णु-पुराण २.१.१८ । प्रादिमानव का यही प्रजनाम
(मा० स्क० ५, १० ४) वर्ष मे जन्म हुमा था और उसी से विश्व मे मानव सभ्यता अर्थात्-उक्त वंशावली मे भरत हुए और उन्हीं के का विस्तार भी हुप्रा । 'मनु' भगवान ने कहा है कि नाम पर यह देश भारत के नाम से विख्यात हमा है। 'एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः । स्व स्व चरित्र इक्ष्वाकुः प्रथमप्रधानमुद गादित्यवशस्ततः तस्मादेव शिक्षेरन् (पथिव्या) सर्वमानवाः ।।"
च सोमवंश इति यस्त्वत्ये कुरुग्रादयः । (जैन हरिवश___ महाभारतयुद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व 'धृतराष्ट्र' ने संजय पुराण, पर्व १३, श्लोक ३२) अर्थात् सबसे प्रथम इक्ष्वाकू. से भारतवर्ष के सम्बन्ध मे जिज्ञासा की। सजय ने पथ, वंश चला, उसके बाद सूर्य, चन्द्र, कुरु, उग्र प्रादि वंश इक्ष्वाकु, ययाति, अंबरीष, मान्धाता, नहुष, शिवि, ऋषभ, प्रचलित हुए। इसी सर्वप्रधान प्रथम इक्ष्वाकुवंश मे भरत मुचकुन्द, पुरुरवा नग, कुशिक, गाधि, सोमाक मौर दिलीप हुए है । पुराणों के अनुसार 'इक्ष्वाकू' के एक सौ पत्र थे। मादि कतिपय महान राजामो का नाम पिनाकर कहा- उनसे ही सम्पूर्ण पार्य-वश की परम्परा चलो है। श्री "सर्वेषामेवराजेन्द्र प्रिय भारत भारतम् ।" हे राजराजेन्द्र ऋषभदेव जी को भी एक सौ पुत्र थे। 'इक्ष्वाकु वश के भारत (घतराष्ट), इन सब लोगो को भारत देश प्रत्य- नामकरण का कारण जैन ग्रंथ मे निम्न प्रकार से हैधिक प्रिय था। ये सभी लोग देश भक्त हो गए हैं।
"माकनाच्चतदिक्षणं रस सग्रहोगणाम् । इक्ष्वाकूः महाराजा 'पथ' ने पर्वत श्रेणिया काट-काटकर भमि इत्यभू द्दवो जगतामभिसम्मतः ।।" अर्थात् श्री ऋषभदेव को समतल किया (ममयल किया)। उसे मनुष्यो के
की प्रथम पारणा के समय राजा श्रेयास ने उन्हे 'इक्ष रस' पावास योग्य बनाया और कृषि, वाणिज्य एवं पशु पालन
दिया था, तभी से इस वंश को इक्ष्वाकु-वंश कहा जाने का प्रचलन किया। (विष्णु पु० १११३८२, ८३,८४)।
लगा। 'इक्षु' का उल्लेख अथर्ववेद (१९३४) तथा ऋग्वेद महामानव श्री ऋषभदेव ने मानवों को सभ्य-सुसंस्कृत में है। बनाया, प्रजा को गहस्थाश्रम में नियमित किया। (भा० पं० श्री भगवतदत्त जी ने अपनी रचना 'भारतवर्ष १॥४॥१४) । इन्हीं श्री ऋषभदेव के पुत्र महाराजा 'भरत' का इतिहास' में राजा 'सुदास' की वंशावली प्रथम 'मनु'