Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 146
________________ बिहार के बिहारी : प्रतिहत पहंन्त को दीक्षित कर भी उनसे पूर्व व्ययहार छोड़ने को नही कर प्रहन्त बनने उतना परिश्रम करें, जितना भी शक्यकहते है । मैत्री, करुणा, मदिता की भावना को जीवन के सम्भव हो। विकास के लिए प्रावश्यक मानते हैं। वे पांच काम गुण राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के उत्तराधिकारी, सर्वधर्ममार्य विनय में जंजीर मानते है और पाच नीवरण कम मार्य विनय में प्रावरण मानते है । वे बुद्ध (परमतत्वज्ञ), समभाव के इक्छुक बिनोवा भावे के शब्दो में कहे -"महंन इदं दयमे विश्वं अभवम् (ऋग्वेद)-हे महन् ! तुम इस धर्म (परमतत्व), सघ (परमतत्व रक्षक समदाय) की तुच्छ दुनिया पर दया करते हो । प्रहंन् और दया दोनो शरण अनीव प्रावश्यक मानते है। प्राणातिपात विमरण -- पहिसा, प्रादिन्नादान विरमण -- चौरी, काम मिथ्याचार ही जनों के प्यारे शब्द है। सामुदायिक मासाहार निवृत्त विमरण-अध्याभिचार, मृषावाद विमरण --- अट त्याग, का मबमे पहला श्रेय शायद जनो को ही है। बाद मे बौद्ध, सुरा मेरय मद्य प्रमाद स्थान विरमण - नशा त्याग का वैष्णव, ब्राह्मण आदि ने उसको स्वीकार किया। बुद्ध की परामर्श देते है। वे निरुपाधिशेष सम्यक सम्बद्ध होते है। शिक्षाप्रो का धम्मपद मे समायोजन है और वे सहज भाव वे तीथों के निर्माता रतपों के प्राधार होत है। प्रबद्र पाठक से भी स्वीकार कर सकते है । भगवान बद्ध की जो इज्जत अनुभव करेंगे कि महन्त विषयक जैन और बौद्ध दष्टि में काफी ब्रह्म देश और तिब्बत मे है वह हमारे लिए बहुत बड़ी बात है । बोद्ध धर्म मे करुणा पर जोर है और जैनो मे क्या समानता तथा कम असमानता है। प्रहन्त शोक रहित नियुक्त गह त्यागी अमंग्रही प्रनाशक्त जितेन्द्रिय यथार्थ- पाना त्यागी प्रसंगी प्रजासतमा खाना-क्या-न-ग्वान। पर। विद होने है, वे तब्णा और प्रमाद के परित्यागी होकर जागन बद्ध का धर्म करुणामूलक परन्तु वैराग्यप्रधान है। उनका क्षेत्र मानवता है । जनो का धर्म भी करुणामूनक है, लोक हितैषी होते है। उनको अनुभव मलक देशना है। जा तो सही। पर उसका क्षेत्र मानव नहीं समूचा जीव जगत राग में अनुरक्त है वे तृष्णा के स्रोत मे जा पडते है. जिम है, उसमें न विह्वलता है, न खलबली, उसमे है तटस्थता । प्रकार मकड़ी अपने स्वयं के बनाये जाल में फस जाती है, पर निम्पह धंयंशाली लोग इसे काटकर सब दुखो को प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्ररहन्त को पुण्य का फल कहा । उन्हें प्रेमठ शलाका का पूरुषों में शीर्षस्थ माना । अनेक बौद्ध छोडकर संसार में विरक्त होने है । जब मनुष्य पालसी बन विद्वानों ने महन्त की भक्ति विषयक बाते लिखी। उपनिजाता है, ज्यादा खाने वाला निद्रालु हो जाता है करवट बदल. पद और गीता की शिक्षाप्रो मे प्रहेन्त का यह कथन मध्य बदलकर सोता है तब खा-पीकर मोटे बने हुए सुअर के कडी के समान आज भी पठनीय, मननीय, चिन्तनीय, समान वह मूर्ख बार-बार जन्म लेता है। गीता की दृष्टि से गहणीय है-जो ममभाव से बरतता है, जो शान्त, दमन गहणीय है-जो ममभाव मे araat "जातस्थ ध्रुवं मृत्युः ध्रुवं जन्म मृतस्य च" अनुभव करता है। शील, संयमी, ब्रह्मचारी है, जिसने दण्डत्याग करके सब शंकराचार्य के शब्दो मे "पुनरपि जननं, जननी जठरे शयन, भूतो को प्रभय दिया है वह ब्राह्मण है, वह श्रमण है, वह पुनरपि मरण भुगतता है। यह सूर्य सत्य हृदयगम कर वह भिक्ष है। यदि हम चिरकाल से ८४ लाख योनियों मे भटकते हुए जन्म-मरण से तिलतुषमात्र भी भयभीत हए हों तो अहंन्त बजाजखाना, जावरा (म.प्र.) जैसा प्राचरण करे, उनके द्वारा उपदेशित मार्ग पर चल. 000 (पृष्ठ ६५ का शेषांश) ऐल वश (चंद्रवंश)। वे परम्परा विरोधी होने से अप्रमाण है। श्री बलदेवजी उपाध्याय ने अपनी सर्जना 'पुराण- उपरोक्त उद्धरणों सिद्ध है कि "इस देश का नाम विमर्श' (पृ. ३३३) में लिखा है कि प्राचीन निरुक्ति के जिम 'भरत के नाम पर मारतवर्ष पड़ा और प्रख्यात अनुसार स्वायभुव मनु के पुत्र थे प्रियवन, जिनके पुत्र थे हुमा, वह दुष्यन्त-शकुन्तला पुत्र 'भरत' (चंद्रवंशीय) से नाभि । नाभि के पुत्र थे ऋषभ, उनके शतपुत्रों में ज्येष्ठ हजारों वर्ष पूर्व सूर्य-वंश म हुप्रा । जिन सूर्य वशोयो भरत थे । उन्होंने पिता से सिंहासन प्राप्त किया और का प्राचीन साहित्य म उल्लेख मिलता है, वे इसी ऋषभ इन्ही राजा भरत' के नाम पर यह प्रदेश 'अजनाभ' से पुत्र 'भरत' की सन्तान है, और भरत-वंश' के नाम से परिवर्तित होकर भारतवर्ष कहलाने लगा। जो लोग प्रसिद्ध है । दुष्यन्त-पुत्र 'भरत' के नाम पर यह नामकरण मानते है, बसन्ती कटरा (ठठरी बाजार), वाराणसी 000

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