Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 135
________________ अहिंसा : विश्वधर्म 0 उपाध्याय मनि श्री विद्यानन्द 'गाणी सिव परमेष्ठी सम्वाह वि चहमहोबुद्धो। होता है) इत्यादि जीवन सूत्र हिन्दू शास्त्रकार लिखने अप्पोषिय परमप्पो कम्मविभुषको य होइ फुडं।' लगे। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अक्रोध, ब्रह्मचर्य इत्यादि पहिसा भगवान् महावीर की दिव्य ध्वनि है, धर्म के बस लक्षणो मे वैदिको ने 'पहिसा' को धर्म का चौबीस तीर्थकरों द्वारों उपदिष्ट सम्यग धर्म है और स्याद- स्वरूप माना। यह महिंसाधर्म की महान विजय थी। बाद सिद्धान्त को मानने वाले कोटि-कोटि जनों का धर्म पहिसा धर्म की प्रभावना के परिणामस्वरूप भारत में जैन है। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि अहिमा प्राणिमात्र धर्म के अनुयायियों की विशाल सख्या थी। प्राबर के का पास्मधर्म भी है। यह वस्तुस्वरूप होने से सभी को राज्यकाल मे चार करोड जैन थे। प्रिय है । "वरं मज्झ ण केणवि' कहन बान तीर्थकर विश्व ईसाई मिशनरियो द्वारा दुर्गम अगम आदिम क्षेत्रो, के सम्पूर्ण जीवाजीव से निर्वैर थे। सब मानवो से, प्रशेष पर्वतीय प्रदेशो और पिछडी-उपेक्षित जातियो मे घमघमकीट-पतगों से, विश्व के प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष प्रणमहत पर- कर अस्पताल, स्कल प्रादि बनाकर वन मानव सेवा भाव माणु पुद्गलो से प्रसीम करुणामय अहिंसक व्यवहार करना भी अहिंसा धर्म की ही प्रेरणा है। पहिसा-धर्म का प्रारम्भिक पाठ है। तीर्थकगे और उनके सम्यक चारित्र ही धर्म है। यह कागज पर नही जीवन मनुयायियों ने हिंसा को चारित्ररूप देकर मानव जाति में प्रकित करना होता है । जीवन में उतारे बिना कागज मे का महान् उपकार किया है। अपने अहिंसामूलक प्राचार रहा धर्म प्राणी को त्राण नहीं देता। धर्म की रक्षा जीवन द्वारा भर्य भूमि के कण कण को अपनी स्वेच्छया संचार- को तन्मय बनाकर होती है धर्म रक्षा के लिए उसके पालने शील चरणविभति से निरन्तर पवित्र करने वाले जैना- वालो की संख्या अधिकतम होनी चाहिए, क्योकि 'न धर्मो चार्यों और मुनियो ने मानव को हिंसक पशुवत्ति से ऊपर धामिकविना' (धामिको के बिना धर्म किसम स्थित उठाकर मानवता की दयामयी मणिशिला पर प्रतिष्ठित होगा) । प्रत: विश्व के देशो में, प्रदेशो मे, नगरो, गावो किया है। पहिमा, माता की गोद के समान, समस्त और जातियो मे धामिकता का शंख फूकने की परमावश्यप्राणियों को प्रभय प्रदान करने वाली है। इस शब्द की कता है, ताकि उदार सर्वोदयी धर्म का विस्तृत रूप विश्वमधुरता को चाल कर प्राणियो के परस्पर वैरभाव का मच पर पुनः प्रवतीणं हो और 'प्रत्ता चेव पहिसा', उपशम होता है । वैरभाव की निवृत्ति से हृदय मे शान्ति (मात्मा ही अहिंसा है) के सन्देश के उद्घोषक तीर्थकर की शीतल धारा प्रवाहित होती है । शान्ति को इस जल वर्षभदेव के, जिन्होने लोक संग्रह एवं लोक कल्याण की धार मे अवगाहन करने वाला विश्व ही इस प्रकार भावना से ससार को दिव्य-ध्वनि का अमृतकलश पिलाया, महिंसा परम्परा के संबंध से तत्वचिन्तापरिणामी मोक्ष के __ उसी लोकधर्म और प्रात्मधर्म के प्रभ्युत्थान से हिमा, लिए मुख्य साधन है। अहिंसा के इस प्रात्मदर्शनमूलक वैर, कलह, शिथिलाचार प्रादि दूर्जात प्राधि-व्याधियों का धर्म का प्रभाव विश्व के सभी धमों पर छाया हुआ है। शमन किया जा सके और विश्वशान्ति के धूमिलहुए चित्रों वैदिक धर्म, जिसमे यज्ञानुष्ठान विधि मे हिंसा की जाती मे भी नया रग उमगाया जा सके। रही, महिंसा धर्म के प्रभाव से वहा 'मा हिस्या.' । हिसा चारितं खलु धम्मो' की गूंज मे से उठने वाली मत करो), 'निरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव' (जो प्रहिसा की पदध्वनि को पहचानकर जनसाधारण तत्वचिन्ता की ओर प्रवृत्त हो सकता है, भौर सब प्राणियो । सम्मान से विनत हो उठे, झूम उठे, इसके अनुरूप स्वय मे वैर-रहित है, वह मोक्ष को प्राप्त होता है), 'अहिंसा को बनाना धर्मभावना के लिए प्रथम म गलपाठ है। प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वर त्यागः" (अहिंसा की प्रतिष्ठा मशेष प्राणियो का हित-साधन करने वाले तीर्थकरो के रखने से महिसक के पास वैर-त्याग की भावना का उदय महिंसा-धर्म को ही सर्वोदय-तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त

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