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बीसवीं सदी के भोज
0 श्री कुन्दनलाल जैन, दिल्ली
दसवीं सदी में परमारवंशी धारा नरेश महाराज भोज- या चापलूस साहित्यकार ले उड़ेंगे, कोई कहता था राजराज देव जिस तरह लक्ष्मी और सरस्वती के अपूर्व संगम नैतिक दबाव या सिफारिश पर यह पुरस्कार दिया जाया थे, उसी तरह हजार वर्ष बाद इस बीसवीं सदी मे उत्तर करेगा। पर पिछली दस-बारह पुरस्कृत कृतियों को चयन प्रदेश के नजीबाबाद नामक एक छोटे से कस्बे के साहू पद्धति को देखकर सभी की प्राशंकाएं एवं प्रविश्वास परिवार में श्री शान्ति प्रसाद जी जन्मे थे। उन्हें यदि कपूर की भांति गल गए हैं। जिस निष्पक्षता, सचाई और इस सदी का भोज कहा जावे तो कोई प्रत्युक्ति न होगी। ईमानदारी एवं गहन छानबीन के बाद प्रति वर्ष ___ साह शान्ति प्रसाद जी ने अपनी प्रतिभा, बुद्धि-कोशल रचना पुरस्कार के लिए चुनी जाती है, उसके पीछे स्व. एवं सतत अध्यवसाय से महाराज भोज की भाति लक्ष्मी श्री साह जी एव स्व. सौ. रमा जी की विशुद्ध साहित्यिक पौर सरस्वती का अद्भुत संगम स्थापित किया था । वे उदात्तभावना एवं निष्पक्ष दृढ सकल्प ही कार्य कर रहे हैं। हिन्दू विश्वविद्यालय काशी, के साइम ग्रेजुएट थे, पर
स्व० साहू जी जहां जैन सस्कृति और जन वाङ्गमय उन्होंने अपने वैज्ञानिक अध्ययन एव तकनीकी स्वाध्याय
के प्रबल उद्धारक, प्रचारक एवं प्रसारक थे, वहां सम्पूर्ण से अपना ज्ञान बहुत विस्तृत कर लिया था।
भारतीय संस्कृति, साहित्य और वाङ्गमय एवं भारतीय सौ० रमा जैसी पत्नी को पाकर उनका दाम्पत्य
भाषामो के प्रति उनका दष्टिकोण बड़ा उदार, सहानुभूतिजीवन मणि काचन संयोग की भाति दमक उठा था । वे
पूर्ण एव तीव्र अनुरागमय था। वे सभी भारतीय भाषाम्रो जहां ज्ञान के सच्चे प्राराधक और पुजारी थे, वहा लक्ष्मी
के सपूर्ण साहित्य को समुन्नत एव समृद्ध दशा मे देखना उनके चरण चम्बन किया करती थी, पर उन्होने लक्ष्मी में
चाहते थे और इसके लिए मनसा-वाचा-कर्मणा प्रयत्नशील कभी प्रासक्ति नहीं दिखाई। वे तो ज्ञान की ज्योति को भी थे। मालोकित करने में ही अपना तन मन धन लगाते रहे।
एक वार स्व. डा. ए. एन. उपाध्ये मोर स्व. डा. साह जी ने अमेरिका के श्री काडं की भाति अपने हीरा लाल जी एवं स्व. बा. छोटेलाल जी ने स्व० साह व्यावसायिक साम्राज्य का विस्तार किया था। पर वे जी के समक्ष एक योजना रखी कि जहा-जहां जो-जो उससे 'जलते भिन्न कमल' की भांति सर्वथा निरासक्त प्राचीन हस्त लिखित पांडलिपियां एव प्रथागारों में प्राचीन रहे। उधर दूसरी ओर मि. नोबिल की भांति अपनी साहित्य जीर्ण-शीर्ण या अव्यवस्थित दशा मे पड़ा हो, उसे कीति पताका को चिरस्थाई रखने के लिए उन्होने ज्ञानपीठ एकत्रित कर एक केन्द्रीय पुस्तकालय में वैज्ञानिक दृष्टि से पुरस्कार का मायोजन किया। महाराज भोज भले ही सगहीत एवं सुरक्षित किया जावे भोर महत्वपूर्ण एक श्लोक पर 'लक्ष ददों की उक्ति से इतिहास मे प्रसिद्ध पांडलिपियों की माइकोफिल्मिग करा ली जावे जीर्ण-शीर्ण हों, पर ज्ञानपीठ का प्रतिवर्ष एक सर्वश्रेष्ठ कृति पर एक ग्रन्थों का रखरखाव वैज्ञानिक दृष्टि से किया जावे जिससे लाख रु०का पुरस्कार तो इस सदी के सभी लोगो ने देखा प्रागे पाने वाले मनुसंधिस्सुमों को साहित्यान्वेषण के लिए सूना है। इस सारी सूझ-बूझ एवं क्रियान्वयन के पीछे कारण ही भटकना न पड़े तथा शोध की सुविधाएं सरस्व. श्री साहू जी एव स्व. सो. रमा जी का ही हाथ था। लता से प्राप्त हो सके।
जब ज्ञानपीठ के पुरस्कार का प्रायोजन चल रहा था स्व० साहू जी इस पुनीत साहित्यिक एवं सांस्कृतिक और इसकी भूमिका एवं विधि-विधान तैयार किए जा श्रेष्ठ कार्य मे तन-मन-धन से पूरा-पूरा सहयोग देने को रहे थे तब लोगो ने इसकी निष्पक्षता पर बड़े-बड़े प्रश्न तत्पर थे । एक बार जब उनसे भेंट हई और मैंने उपर्यक्त चिन्ह लगाए थे। कोई कहता था यह पुरस्कार तो केवल योजना के सम्बन्ध मे उनके विचार और प्रगति जानना जैनियों को ही मिलेगा, कोई कहता था कि इसे चाटुकार चाही तो उन्होंने बड़े पीड़ा भरे स्वर में कहा था कि "चौष.