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जैनत्व के जीवन्त प्रतीक
D डा. राजेन्द्र कुमार बंसल, शहडोल
श्रद्धा सुमन समर्पित करने एव दूसरों के प्रेरणा स्रोत सही प्रकाशन नहीं हो सकता। जबकि धिद्यमान पर्यावरण बनने की पवित्र भावना से व्यक्ति विशेष से सम्बन्धित मे प्रावश्यकता इस बात की है कि उनके व्यक्तित्व का विशेषांक निकालने की परम्परा रही है। किन्तु अव मह यथार्थ प्रकाशन किया जाये जिससे संस्कारविहीन युवा की तुष्टि एव व्यक्तिगत लाभ की दृष्टि से ऐसे व्यक्तियो के पीढी, भ्रमित वृद्ध पीढी एवं प्रथमद मे चर मध्यवर्गीय भी विशेषाक निकाले जाने लगे है जिनका व्यक्तित्व विवाद धनिक पीढ़ी स्त्र० साहजी से मार्गदर्शन पाकर कल्पना. ग्रस्त एव समाज विच्छेदक बना है। फिर ऐसे विषाको लोक की उडान छोड जमीन पर चलने का साहस कर का प्रोचित्य सिद्ध करने म प्रायः घटनाएं अतिरजित रूप सकें। मे वणित की जाती है जिमसे व्यक्ति का व्यक्तित्व कृत्रिम दुर्भाग्य मे मेरा साहू जी से प्रत्यक्ष मे परिचय कभी एव बोझिल मा लगने लगता है और वह सहज सरल नही हुमा। हां उनके अग्रज श्री साहू श्रेयांस प्रसादजी से प्ररणा स्रोत नही बन पाता। बने भी क्या ? कुछ अन्दर अवश्य विगत वर्ष गुना मे सक्षिप्त परिचय हुप्रा था। वजन हो तो बने भी।
उनकी सौजन्यता, सरलता, महृदयता एव निश्छलता की स्व. श्री शान्तिप्रसाद जी की पुण्य स्मृति का विशे- बानगी से स्व. श्री साहनी के प्रति मेगे जो धारणा थी, पाक हम नवीन प्रवृत्ति का अपवाद है और साहू जी का वह अवश्य पुष्ट हुई। गनिशील, बहमुखी एवं कर्मयोगी व्यक्तित्व यथार्थ में दूमरो ऐसे भाग्यवान व्यक्ति अल्प संख्या में ही होते है जिन्हे के लिए प्रेरणा-स्रोत एव पथप्रदर्शक बनेगा, इममे दो मत जीवन मे विपुल भौतिक साधन एव पवसर प्राप्त होते है। नही हो सकते।
फिर ऐसे व्यक्ति तो बिरले ही होते है जो उन माघनो मह प्रश्न व्यक्ति के व्यक्तित्व के प्राधारभत गुणो के कामही एव सतुलित उपयाग जीवन की प्रत्येक विद्या मे प्रकाशन का है जो उसके जीवन दर्शन, चितन-मनन को उन्मुक्त हृदय से निष्काम भावना से करते है । जब हम दिशा एव कार्य-पद्धति प्रादि के सही मूल्यांकन पर निर्भर स्व. श्री माहूजी के जीवन दर्शन की ओर देखते है तो यह करता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व के मूल्याकन का एक नज- वात निविवाद रूप से स्वीकारना पड़ती है कि उन्होने रिया मोर होता है। वह है व्यक्ति ने परिवार, ममा ज, राष्ट्र अपने उग्र पुरुषार्थ से जो बाह्य वैभव पाया था, मिला एवं धर्म-सस्कृति से जितना पाया है उसका वह निज के था, उसका उपयोग उन्होने धर्म, स कृति, साहित्य, समाज उपलब्ध साधनो की तुलना में कितना प्रौर का ऋग एक राष्ट्र की सेवा में सहज भाव से समर्पित कर दिया चुका सका है ? और क्या वह अपने बहुमती दायित्वो को और इस प्रकार वे प्राधुनिक जैन जगत के वीर भामाशाह पूर्ण कर सका है ?
बन गये । मान-प्रतिष्ठा पाकर भी वे निरहंकारी बने रहे। वस्तुतः इन प्रश्नो के सन्दर्भ में ही स्व० साहनी का जिस वंभव से उनके साथी, सहयोगी, मित्र एवं कृपापात्र मूल्याकन किया जाना उनके व्यक्तित्व के प्रति मबसे बर । चमत्कृत एवं महंबद्धिधारी बने, वही वैभव साहुजी को श्रद्धाजलि होगी। कुवेरपति परिवार का कृपापात्र बनने नव्यविमुख नही कर सका। वे जल में कमलवत् बने रह हेतु स्व० साहूजी की प्रशंसा करने से लोकिक लाभ तो जीवनपर्यन्त निष्काम कर्मयोगी बने रहे प्रोर जिन वाणी, सम्भव हो सकता है, किन्तु उससे उनके व्यक्तित्व का जिन शासन के गीत गात रहे। सावन माना तो और