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२८, वर्ष ३१, कि. ३-४
अनेकान्त
प्रमूल्य प्राचीन ग्रन्यराशि का उद्धार, संपादन व प्रकाशन । शित 'जैन कला एवं स्थापत्य का इतिहास' भी इसी एतदथं वे लोग थे 'भारतीय ज्ञानपीठ' के स्थान पर जैन साहित्य के अन्तर्गत है। ज्ञानपीठ' नाम के प्रधान पक्षपाती। किन्तु, साहजी विशे- अपने व्यक्तिगत जीवन में साहूजी जिस प्रकार निरषतः रमाजी इससे सहमत नहीं हुई। इनका लक्ष्य था भिमानी, हँसमुख व मिलनसार थे, उसी प्रकार वे थे धर्मऔर अधिक व्यापक भीर अधिक विशाल ।
निष्ठ और चरित्र-सम्पन्न । धर्म एवं तीर्थक्षेत्र मे तो प्राप भारतीय प्रकाशन के क्षेत्र में ज्ञानपीठ एक स्मरणीय मक्तहस्त से दान देते ही थे, सामाजिक उत्थान व सगीन नाम है। मूतिदेवी पौर लोकोदय दो ग्रन्थमाखानो के आर्थिक परिस्थितिवालो को सहायता भी प्रकृपण भाव से अतिरिक्त भारतीय ज्ञानपीठ 'माणिकचद ग्रन्थमाला' मे करते थे। शिक्षालय, प्रतिष्ठान, सराक जाति उन्नयन प्रादि प्राचीन दुर्लभ साहित्य का पुनर्मुद्रण, 'रमा जैन तामिल कार्यों में भी वे कम अर्थव्यय नहीं करते थे । वे मात्र प्रोपएवं कन्तड ग्रंथमाला मे प्राचीन तामिल व कन्नड ग्रंथो का चारिक अर्थ में ही धार्मिक नही थे, धार्मिक संस्कार प्रकाशन रमा जैन सास्कृतिक ग्रंथमाला' में विचारपरक उनकी रगो में इस प्रकार व्याप्त हो गया था कि मृत्यु के शोधमूलक, साहित्य प्रकाशन प्रादि विभिन्न परिकल्पनामो कुछ पूर्व उन्होने यह अभिमत व्यक्त किया था कि 'पारोग्य को भनवरत रूपायित किया जा रहा है । विगत भगवान लाभ के बाद मैं हस्तिनापुर जाकर मनिश्री शान्तिसागरजी महावीर की २५वीं निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष में से श्रमण दीक्षा ग्रहण करूँगा।' उनकी वह इच्छा अवश्य प्रकाशित महावीर सम्बन्धी ग्रंथों की संख्या भी ही पूरी नही हैई, पर वह उन्हें उच्च लोक ले जाने मे कम नहीं है। १५०० चित्र सबलित तीन भागो मे प्रका- अवश्य सहायक बनी होगी।
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(पृष्ठ २५ का शेषांश) जीर्णोद्धार कराने, पुरानी कलाकृतियो के सरक्षण प्रादि समाज की प्रापसी फूट को मिटाकर वात्सल्य भाव की मे साहजी ने विशाल धनराशि व्यय की । अपने जीवन क अभिवृद्धि करने मे साहूजी ने एक युगपुरुष का कार्य किया पन्तिम दिनों में साहजी हिक्षत्र के जीर्णोद्धार तथा नव- है। ऐसे महापुरुष के बारे में जितना भी लिखा जाय वह निर्माण के मांगलिक कार्य में व्यस्त रहे।
कम है। परम विवेकी : साहजी की प्रत्येक क्रिया उनके प्रौढ़
असमय में ऐसी ज्योति का हमारे बीच से भदश्य विवेक की परिचायक थी। उनकी श्रद्धा एवं सतुलित हो जाना राष्ट्र एव समाज की एक अपूरणीय क्षति है। विवेक समन्वित प्राचार-व्यवहार रत्नत्रय को सार्थकता
जिस महापुरुष ने प्रचुर विभूति पाकर भी भरत के समान को प्रकट करता है।
जल मे कमलवत् प्रादर्श प्रस्तुत किया है उन्हें मैं विनत भगवान महावीर के २५०० वें निर्वाणोत्सव पर श्रद्धा सुमन चढ़ाती हूं। दिगम्बर-श्वेताम्बर सभी को एक झण्डे के नीचे लाने तथा