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सहशान्सिार: सेठ मोरा
और सतत मानसिक तनाव, मनुष्य को जड़-मूल से तोड़ते इच्छा थी कि जैन साधु माधुनिक युग को ठीक से समझे, जा रहे हैं। मैं भी उससे पृथक् नही हूं। लेखन कार्य से मध्ययनशील बनें, मौलिक ग्रन्थों का निर्माण करें। कुछ उदासीनता-सी होती जा रही है। जैन ग्रथों के समाज को ठीक से समझे बिना साधु उसमे प्रतिष्ठालिखने में प्रत्यधिक श्रम करना होता है । यह श्रम निष्ठा पूर्वक विचरण नहीं कर सकता । साधु को ऐहिक लोके. के बिना संभव नहीं है। किंतु निष्ठावान को न षणाम्रो से दूर रहना ही चाहिए, ऐसा वे चाहते थे। इस प्रतिष्ठा मिलती है और न जीवन यापन की सुविधाए। बात के वे सस्त खिलाफ थे कि कम उम्र की लड़कियों डा. एम. विण्टरनित्स सात समन्दर पार हिन्दुस्तान में है और लहको को दीक्षा दी जाए। यदि दी जाये तो सत्र कर 'हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर' लिख सके, का ण और संघाचार्यों को सशक्त होना ही चाहिए । साधु या था ऊंची से ऊंची जीवन सुविधाए, जो उनकी सरकार साध्वी का चरित्र एक मादर्श चरित्र होना अनिवार्य है। ने उन्हे दी थी। दूसरी पोर एक जैन धनाढ्य व्यक्ति उससे समाज और राष्ट्र एक दिशा ग्रहण करता है । अपने बेटे की शादी के निमन्त्रण-पत्र को खबसूरत बनाने साहू शान्ति प्रसाद मूलत व्यापारी थे। उन्होने अपने में जितना खर्च कर सकता है, जैन ग्रंथ के प्रकाशन मे छोटे व्यापार को समृद्ध बनाया। उनमे प्रतिभा थी और नहीं। जैन लेखक की कृति यदि वह प्रकाशित भी करता रिस्क झेलने की अभूतपूर्व क्षमता। वढ़ते-बढ़ते उनका है, तो यह जैन लेखक पर उसका प्रहमान ही है। डा.॥ व्यापार भारत के लोडिग ३५ व्यापारो में गिना जाने एन. उपाध्ये ने मुझे बताया था कि एक जैन लेखक ने लगा। उन्होने कोटिशः सम्पत्ति कमाई। यह वही कर अपना पथ प्रकाशित करवाने के लिए प्राधा व्यय दिया था। सकता है. जिसमे व्यापारिक सूझ-बझ हो-ऐमी वैसी
इस सबके होते हुए भी साहू शान्तिप्रसाद ने भार- नही, जिमने अन्नर-राष्ट्रीय अर्थ तन्त्र को भली-भाति तीय ज्ञानपीठ से जो भी प्रकाशित किया, लेखक का भर. समझा हो। उतार चढाव पाये, अच्छाइया-बुराइयां भी पूर मेहनताना दिया। हिसाब-किताब मे कभी गड़बड मिली, किन्तु वे वहते गये और उनका व्यापार प्रासमनही हुई। ज्ञानपीट लेखक के प्रति पूरी ईमानदाने द्रान्त ही नहीं, उसे भी पार कर विस्तत हो गया। किन्तु बरतता है, यह सभी जानते है। यही कारण है कि हर मानव-मन विचित्र होता है। उसकी अन्तर परतों को लेखक अपनी रचना ज्ञानपीठ को देना चाहता है। इसके कौन समझ पाता है। साहु साहब का मन शन:-शन: अतिरिक्त, साहु शान्ति प्रसाद प्रत्येक रचना को ऊँचे स्तर मुमुक्ष हो उठा। वे प्रात्मवान् बन उठे। व्यापार और से प्रकाशित करते थे। क्या कागज, क्या गेटमप, क्या पैसे से नितांत निरासक्त मन लिए वे समूचे भारत में प्रप रीडिंग सभी कुछ उत्तम होता था। उनकी रुचियां दौड़ते फिरे । कुछ ने उन्हें समझा और कुछ ने नहीं । वे परिमार्जित मोर सुसंस्कृत थी।
उन्मुक्त-हस्त विश्वविद्यालयो मे "जैन धेयर्स", शोध जीवन के अन्तिम वर्षों में साह शान्ति प्रसाद और संस्थान, कालेज, तीर्थक्षेत्र और मन्दिरों को देते रहेएक वीतरागी साधु मे कोई अन्तर नही रह गया था। देते गये, जब तक उनका दिवावसान न हुमा । मेरी दृष्टि उनका हृदय निर्मल दर्पणवत् हो गया था। उन्हें अध्यात्म मे वे इस दुनिया के एक क्षमतावान व्यक्ति थे। जब मन का गहरा ज्ञान था। वे चलते-फिरते, उठते-बैठते सदंव महा, तो उनकी क्षमता, परलोक को दिव्य अनुभूतियों मात्म-लीन से रहते थे। साधुओ की अधिक-से-अधिक को भी सहज ही सहेजने में समर्थ हुई। सेवा-सुश्रुषा और विनय करते थे। उन पर, उनके सघों माज वे नहीं है। उनकी स्मृति-भर है। सब चले पर, उनकी कृतियों पर धन व्यय करने में वे कभी हिचके जाते हैं । जो पाया है वह जायेगा। वे भी गए, किन्तु वे नहीं। यदि उन पर कभी उपसर्ग प्राया, तो उसे दूर अमर-पुत्र थे, यह कहने में मुझे कोई संकोच नही। 00 करने में उन्होने भरसक प्रयत्न किया। समूचे भारत में
अध्यक्ष हिन्दी विभाग. जैन साधुनों के वे एकमात्र संरक्षक थे। उनकी तीव्र
दि. जैन कालेज, बड़ौत (मेरठ)